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उत्तराखंड मे बन रहे हाड्रो प्रोजेक्ट वरदान या अभिशाप ?

अभिशाप
21 (56.8%)
वरदान
10 (27%)
कह नहीं सकते
6 (16.2%)

Total Members Voted: 37

Voting closes: October 10, 2037, 04:59:09 PM

Author Topic: Hydro Projects In Uttarakhand - उत्तराखंड मे बन रहे हाड्रो प्रोजेक्ट  (Read 39260 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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कहते है की कई बार किसी की ख़ूबसूरती ही उसके लिए अभिशाप बनजाती है, ऐसा ही एक बेहद डरावना सपना धीरे - धीरे सच हो रहा है उत्तराखंड के साथ, देवभूमि कहा जाने वाला उत्तराखंड धीरे धीरे बिजली भूमि कहा जाने लगा है, उत्तराखंड सरकार ने अपने ही लोगों को ठगने के लिए कुछ ऐसी चाल चली की उन्नति के नाम पर जिन उत्तराखंड के लोगों ने आज तक वंहा की प्रकर्ति पेड़ो और पहाड़ो की रक्षा की उन्ही लोगों को आज उन्नति के नाम से हटाया जा रहा है, बाँध बनाने के लिए लगातार पहाड़ो में विस्फोट करके पहाड़ के प्राकर्तिक पानी के स्रोतों के साथ छेड़ - छाड़ होने की वजह से वंहा की नदिया और पिने के पानी के स्रोतों सूख चुके है वंहा के लोगों को लगातार विस्थापित किया जा रहा है अब वो दीन दूर नहीं जब उत्तराखंड में वंहा के स्थानीय लोगों के बजाये सिर्फ पानी के बाँध ही दिखाई देंगे और उत्तराखण्ड जिसको लोग हिंदुस्तान का स्वर्ग कहते थे वंहा बर्फ से भरे पहाड़ो की जगह सिर्फ बाँध ही दिखाई देंगे न कोई बहते झरने न हरे भरे चीड और देवदार के पेड़. अगर आज हमने इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया तो उत्तराखण्ड सिर्फ एक उन्नति के नाम पर बना एक कुरूप खिलौना बन जाएगा.

Devbhoomi,Uttarakhand

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जमरानी बांध पर फिर लगीं नौ आपत्तियां


आपत्तियों का निराकरण कर विस्तृत रिपोर्ट पेश करने के निर्देश = दिल्ली जाने से पहले देहरादून से ही लौटी फाइल, खामियों के मंथन में जुटा सिंचाई विभाग 
हल्द्वानी: कुमाऊं की बहुउद्देशीय जमरानी बांध परियोजना में फिर से पेंच फंस गया है। वन भूमि हस्तांतरण के लिए काफी कसरत के बाद तैयार करके भेजे गए प्रस्ताव में वन विभाग ने 9 आपत्तियां लगा दी हैं। साथ ही कहा है कि आपत्तियों के निराकरण की विस्तृत रिपोर्ट दी जाए। इधर, आपत्तियां लगने से चिंतित सिंचाई विभाग के अधिकारी खामियों को लेकर मंथन में जुट गए हैं।
उत्तराखंड ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के लिए भी बहुउपयोगी साबित होने वाले जमरानी बांध का निर्माण काठगोदाम से 10 किमी अपस्ट्रीम गौलानदी पर होना है। 130.60 मीटर ऊंचाई वाले प्रस्तावित इस बांध की पत्रावली 1965 में शुरू हुई थी। प्रस्तावित बांध का निर्माण होने पर उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड की करीब 90 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि सिंचित होने का अनुमान है।


 इसके अलावा बांध पर करीब 30 मेगावाट बिजली का उत्पादन भी हो सकेगा। पेयजल संकट के लिए एकमात्र समाधान कहे जाने वाले बांध के जलाशयों में 144.30 मिलियन घन मीटर जल संग्रहित होगा। इसमें से 54 मिलियन घनमीटर पानी पेयजल के लिए उपलब्ध हो सकेगा। 2010 में परियोजना की पुनरीक्षित हाइड्रोलॉजीक रिपोर्ट को केंद्रीय जल आयोग ने जब अंतिम स्वीकृति प्रदान की तो उम्मीद जगने लगी थी कि बांध निर्माण का रास्ता आधे से ज्यादा पूरा हो चुका है।



परियोजना में दूसरी सफलता अर्जित करने के बाद सिंचाई विभाग बांध स्थल की भूमि को हस्तांतरित कराने में जुट गया था। दिसंबर 2010 में पहला प्रस्ताव बनाकर नोडल अधिकारी वन विभाग देहरादून को भेज दिया गया, जिसमें कुछ सुझाव नोडल अधिकारी के स्तर से मांगे गए। इन्हें पूरा कर दिया गया।


 इस साल 20 अक्तूबर को प्रमुख सचिव एवं वन व ग्राम्य विकास उत्तराखंड की अध्यक्षता में देहरादून में बैठक हुई। इसमें गहन अध्ययन के बाद वन भूमि हस्तांतरण के प्रस्ताव में 9 आपत्तियां लगा दी गईं। साथ ही पत्रावली सिंचाई विभाग को लौटा दी गई है। कहा है कि सभी आपत्तियों का विस्तृत निराकरण करके ही पत्रावली को प्रस्तुत किया जाए। इससे सिंचाई विभाग को तगड़ा झटका लगा है। अधिकारी आपत्तियों के समाधान को लेकर मंथन में जुट गए हैं।
---क्या हैं आपत्तियां---
http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_8436745.html

Devbhoomi,Uttarakhand

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बड़े बांधों से नष्ट हो रही नदी घाटियों की संस्कृति
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सिविल सोसाइटी के तत्वावधान में आयोजित गोष्ठी में वक्ताओं ने बड़े बांधों को राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा बताया। उन्होंने कहा कि बड़े बांधों के कारण नदी घाटियों में बसी संस्कृति नष्ट हो रही है। गांव के गांव अपनी जगह से हटाए जा रहे हैं, जो भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।


काला रोड स्थित एक होटल में आयोजित गोष्ठी को संबोधित करते हुए मातृसदन हरिद्वार के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती ने कहा कि गंगा और हिमालय पूरे विश्व की पूंजी है। गंगा की संस्कृति के साथ व्यवसायिक लाभ और राजनीतिक स्वार्थ के लिए अन्याय किया जा रहा है।

उन्होंने कहा कि बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं के कारण नदियों को सुंरगों में धकेला जा रहा है। जिसके कारण इन नदी घाटियों में बसी संस्कृतियां नष्ट होने के कगार पर पहुंच गई है। अर्थशास्त्री प्रो. भरत झुनझुनवाला ने कहा कि मंदाकिनी घाटी के समस्त संघर्षशील लोगों को अपना संघर्ष जारी रखना पड़ा है।

 गढ़वाल विवि के समाजशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. जेपी पचौरी ने कहा कि संवेदनशील हिमालय में अवैज्ञानिक तरीके से किए जा रहे निर्माण कार्यो से राज्य का सामाजिक ताना-बाना धीरे-धीरे नष्ट हो रहा है।


Dainik jagran

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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टूटता हिमालय, सूखती गंगा

http://khabar.ndtv.com/PlayVideo.aspx?id=216466

जो सवाल खड़े हैं, वे एक पहाड़ी राज्य या चंद नदियों और कुछ लोगों की जिंदगी को बचाने भर के नहीं हैं, बल्कि पूरे हिमालय और हिंदुस्तान से जुड़े हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बांधों से मूल स्वरूप खो रही है गंगा
Updated on: Fri, 20 Apr 2012 01:07 PM (IST)
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बांधों से मूल स्वरूप खो रही है गंगा

हरिद्वार गंगा पर बन रही परियोजना का विरोध कर रहे संतों का मानना है कि गंगा की अविरलता से बड़ा कुछ नहीं। उनका कहना है कि गंगा हमारी सांस्कृतिक धार्मिक धरोहर के होने के साथ ही आध्यात्मिकआस्था का शिखर बिंदु है, इसलिए इसकी कीमत पर कुछ भी स्वीकार्य नहीं। उनका मानना है कि गंगा पर बनी चुकी परियोजनाओं के कारण गंगा अपने मूल स्वरूप को खोती जा रही है। इससे लोगों की आस्था प्रभावित हो रही है, यही वजह है कि इस पर बनी या बन रही परियोजनाओं का विरोध किया जा रहा है।

गंगा रक्षा को लेकर उसमें हो रहे अवैध खनन और क्राशिंग के विरोध से शुरू हुआ आंदोलन गंगा पर बनाई जा रही बड़ी परियोजनाओं के विरोध तक पहुंच चुका है। कुछ परियोजनाओं को खत्म कर दिया, जबकि कुछ के काम को रोक दिया गया। गंगा रक्षा को लेकर हो रह इस विरोध का सीधा असर उत्तराखंड के विकास पर पड़ रहा है। इस बात को लेकर इसके विरोध में खड़े संतों के अपने तर्क हैं, उनका कहना है कि गंगा के आगे सब कुछ बेमानी है। गंगा हमारी आस्था का शिखर बिंदु है और हम उसकी अविरलता को किसी भी कीमत पर नष्ट नहीं होने देंगे। मातृसदन के परमाध्यक्ष स्वामी शिवानंद सरस्वती का कहते हैं कि गंगा पर चल रही परियोजनाओं को अविलम्ब बंद कर देना चाहिए। गंगा करोड़ों हिन्दुओं की आस्था का केंद्र है, परियोजना बनने से गंगा अपना मूल स्वरुप खोती जा रही है, हम ऐसा नहीं होंने देंगे।

अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास का कहना है कि गंगा हमारी सांस्कृतिक आत्मा है और गंगा ही आस्था का सर्वोपरि है। इसलिए हम विकास के नाम पर आस्था से खिलवाड़ नहीं होने देंगे। चेतन ज्योति आश्रम परमाध्यक्ष स्वामी ऋषिश्‌र्र्वरानंद ने गंगा को बांधने के प्रयासों का विरोध किया। कहा कि गंगा की अविरलता को बनाए रखने के लिए जल विद्युत परियोजनाओं को तत्काल बंद कर देना चाहिए। गंगा मुक्ति संग्राम के राष्ट्रीय संयोजक, आचार्य प्रमोद कृष्णम् ने भी गंगा को आस्था का केंद्र बताते हुए जल विद्युत परियोजनाओं को बंद करने वकालत की।

अविरलता के आड़े नहीं बांध- बांध न तो गंगा की अविरल धारा में कोई अड़चन हैं और इससे न ही पवित्रता पर आंच आई है। बांधों की टरबाइन से घूमकर पानी की बूंद-बूंद वापस मुख्य धारा में समा जाती है। इस प्रक्त्रिया में प्रदूषण भी संभव नहीं। थोड़ा-बहुत यह माना जा सकता है कि सुरंग आधारित बड़े बांध जरूर नदियों की धारा की रुख कुछ हद तक मोड़ देते हैं। मगर अब तो सरकार खुद बिना सुरंग वाले रन ऑफ रिवर बांधों की पैरवी कर रही है। मैं तो सुरंग आधारित बांधों को भी गंगा के लिए खतरा नहीं मानता। नदी बचाओ राग अलापने वाले लोग जान लें कि सुरंगों से घूमकर भी पानी दोबारा मेन स्ट्रीम में मिल जाता है। फिर सुरंगों में निर्धारित मात्रा में ही पानी छोड़ा जाता है। तथाकथित पर्यावरणविद् यह भी कहते रहते हैं कि सुरंग वाले बांध मछलियों को मुख्य धारा से शिफ्ट कर देंगे। इसके लिए करीब चार साल पहले केंद्र सरकार ने विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाई थी। जिसका सुझाव था कि सुरंगों के मुहाने पर जाल बना दिए जाएं। समिति की रिपोर्ट कोर्ट में भी पेश की गई थी। किसी भी तथ्य में यह साबित नहीं होता कि बांध गंगा या दूसरी किसी नदी के लिए खतरा हैं। बांध से ज्यादा खतरा तो आज गंगा नदी को सीवरेज, ठोस कूड़ा और उद्योगों के रासायनिक कचरे से है। इस तरह की 90 फीसदी से अधिक गंदगी उत्तराखंड की सीमा से बाहर गंगा में मिल रही है। गंगा का पानी आज भी ऋषिकेश तक पीने लायक और हरिद्वार में नहाने लायक है। उत्तराखंड गठन के समय अस्तित्व में आए झारखंड व छत्तीसगढ़ तक को हमारे राज्य से अधिक प्रति व्यक्ति बिजली उपलब्ध है। हमें जरूरत के मुताबिक बेधड़क बिजली परियोजनाएं बनानी चाहिए। कोई उत्तर प्रदेश या राजस्थान आदि से आकर हमें नहीं सिखा सकता कि गंगा पर बांध नहीं बनने चाहिए। पंजाब में जब बाखड़ा बांध की शुरुआत हो रही थी तो लोगों ने तमाम तरह की अटकलें लगाई थीं, तब पं. जवाहर लाल नेहरू ने बांध को हरी झंडी दिखाई थी। आज बांध की बदौलत पंजाब में खुशहाली है। मेरी सरकार से गुजारिश है कि प्रदेश में हित के अनुसार पनबिजली परियोजनाओं की दिशा में तेजी से काम करे। जिन परियोजनाओं पर बड़ी राशि खर्च हो चुकी है, उनके निर्माण में तेजी लाने के प्रयास किए जाएं।

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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इस विषय पर एक विस्तृत बहस जारी है! जिस तरह से उत्तराखंड में नदिया सूख रही है, इन डामो के बनाने से उत्तराखंड राज्य का कोई भला होने वाला नहीं है! आज भी उत्तराखंड के लोगो न बिजली और और न ही पानी मिल पा रहा है ! बल्कि इन डामो की निर्माण से हजारो जिंदगियां खतरे में है!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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देवसिंह रावतYesterdayसरकार, बांध समर्थक व विरोधियों से दो टूक सवाल
 
 उत्तराखण्ड में जलविद्युत परियोजना के विरोधियों व समर्थकों को एक बात समझ में आनी चाहिए कि वे किसी के निहित स्वार्थ पूर्ति के प्यादे न बन जायें। आज कुछ लोग है जो गंगा और उसकी सहायक नदियां जिनका उदगम स्थल उत्तराखण्ड में है या अन्यत्र है उनमें बडे बांध बनाये जाने का विरोध कर रहे है, वे गंगा की निर्मलता व अविरलता के लिए चिंतित हैं। वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग हैं जो उत्तराखण्ड में ऊर्जा व अन्य विकास के लिए इन नदियों पर बांध बनाये जाने का पुरजोर समर्थन कर रहे है। दोनों के अपने तर्क है। दोनों इन दिनों एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा कर इस मामले को गरमा रहे है। बांध के विरोध जहां गंगा को निर्मल व अविरल बहने का तर्क दे कर केवल प्रदेश में बांध बनाने का विरोध कर रहे हैं वे गंगादि नदी पर बने साधु महात्माओं, होटलों के बडी संख्या में गंगा को दुषित करने वाले सिविरों को बंद करने या उनको शुद्ध करने के संयंत्र लगाने के लिए कोई ठोस पहल तक नहीं कर रहे है। अगर गंगा को शुद्ध करने के लिए गंगा पर बडे बांध बनाना रोकना जरूरी है तो उतना ही जरूरी है इस मार्ग पर बने होटल व पंचतारा आश्रमों में उनके गटर नाली आदि शोधक संयंत्रों का हर हाल में लगाने का। बांध विरोधियों को भी एक पकक्षीय बात कहना तर्क संगत नहीं है।
 आज संचार क्रांति के युग में ही नहीं अनादिकाल से सनातन संस्कृति में अन्य भूभाग की तरह ही उत्तराखण्ड केवल उत्तराखण्ड में रहने वाले लोगों का ही नहीं है। अपितु पूरी सृष्टि का भी है। यहां पर अनादिकाल से जब भी सृष्टि पर कोई विपति आयी उसका समाधान यहां के मनीषियों, चिंतको ंव योद्धाओं ने यहीं खोजा।
 आज बात हो रही बांधों की, ऊर्जा की। वेसे भी चंद टकों के लालच में उत्तराखण्ड जैसे भूकम्प दृष्टि से अतिसंवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में प्रकृति से छेड़ छाड कर कृतिम विशाल बांध रूपि जलाशयों का निर्माण किसी आत्मघाति कदम से कम नहीं है। इस कारण जहां यहां के लाखों पेड पोधों व वनस्पतियों के साथ करोड़ो जीवों की निर्मम हत्या करने के साथ लाखों लोगों को विस्थापित करने को कोन सा पाषाण हृदय का इंसान अपने निहित स्वार्थ में अंधा हो कर जबरन यहा जनता को ऊर्जा की पट्टी बांध कर वर्तमान का ही नहीं भविष्य को भी तबाह करने का कृत्य कर रहे है।
 जहां तक ऊर्जा की बात है। यह जरूरी नहीं बडे बांध बनाया जाय, जब छोटे छोटे होइड्रो बांधों से ऊर्जा का उत्पादन हो सकता है तो फिर क्यों यहां पर विशाल बांध बनाने की हटधर्मिता बनायी जा रही है। इन छोटे होइड्रो बांधों को केवल स्थानीय लोगों व उत्तराखण्ड ऊर्जा उपक्रम की सहभागिता से अगर बडे पेमाने पर बनाये जाय न तो यहां पर विस्थापन का खतरा होगा व नहीं जीवन जन्तु व प्रकृति को बडा नुकसान होगा। इसके साथ इस सीमान्त प्रदेश में माफियाओं के हस्तक्षेप से बचा जा सकता है।
 प्रदेश में विजय बहुगुणा सरकार के यहां पर जल विद्युत परियोजनाओं को प्रारम्भ करने की हाय तौबा को देख कर इन दिनों बांध का समर्थन कर रहे हैं क्या वे विजय बहुगुणा सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर सकते हैं कि प्रदेश में न तो बडे बांध बनायें जाय व नहीं प्रदेश से बाहर के आदमी की भागेदारी ही इन बांधों में हो। ये बांध बने तो छोटे स्तर के उसमें केवल स्थानीय लोगों की भागेदारी हो वह भी ग्राम पंचायत के साथ प्रदेश ऊर्जा विभाग की सहभागिता । इससे ऊर्जा के साथ यहां पर रोजगार की समस्या का भी काफी हद तक समाधान होगा तथा प्रदेश में टिहरी बांध से उत्पन्न देश के विकास को चूना लगाने वाले तथाकथित ऊर्जा के सौंदागरों पर भी अंकुश लगेगा। परन्तु इस प्रकार की योजना से न तो दलालों व नौकरशाहो तथा नहीं हुक्मरानों का भला होगा, भला होगा तो केवल जनता व प्रदेश का। क्या बांध समर्थक अपना आंदोलन इस दिशा में ले जा सकते है। उन लोगों को भी बेनकाब किया जाना चाहिए जो कल तक टिहरी जैैसे विशालकाय बांधों का विरोध कर रहे थे और आज सियारों की तरह ऊर्जा का राग छेड कर उत्तराखण्ड के हिमायती बने है।Like ·  · Share

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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    • OptionsCharu Tiwari जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर पिछले दिनों उत्तराखंड के कथित बुद्धिजीवियों ने मोर्चा खोला है। ये लोग चाहते हैं कि पहाड़ के लोगों के लाशों  के उपर विद्युत उत्पादन होना चाहिये। सत्ता की दलाली करते-करते ये बुद्धिजीवी कई सरकारी सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। इनका नाम है लीलाधर जगूड़ी और अवधेश कौशल। उन्होंने घोषणा की है कि यदि उत्तराखंड में प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनायें नहीं बनीं तो वे अपना पद्य सम्मान वापस कर देंगे। जब इन्हें पद्यमश्री सम्मान मिला था तब भी पहाड की जनता को बहुत ख़ुशी  नहीं हुयी थी। सब जानते हैं कि कितने जुगाड से इन्होंने इन सम्मानों को प्राप्त किया। इनमें से एक बडे कवि माने जाते हैं जिन्हें आम जनता उनके नाम से जाने या न जाने लेकिन नाराणदत्त तिवारी सरकार में ये महोदय लालबत्ती प्राप्त करने में सफल हो गये थे। इसी आधाार पर इन्हें जुगाड़ी के नाम से जाना गया। दूसरे महोदय को पहाडं की जनता ने तब जाना जब उन्हें कहीं से पद्यमश्री सम्मान जुगाड से मिल गया। बाद में पता चला कि वे एक एनजीओ से जुडकर पहाड की ‘सेवा’ में लगे थे। इन दोनों महाशयों ने कहा है यदि जलविद्युत परियोजनायें नहीं बनी तो वे भारत सरकार को अपना सम्मान वापस कर देंगे। हमारी सलाह है कि जिस तरह पद्यमश्री मिलने के बाद भी जनता ने उन्हें घास नहीं डाली वैसे ही पद्यमश्री लौटाने पर जनात कोई आंदोलन आपके पक्ष में खडा करने नहीं जा रही है। अच्छा होगा कि आप जलविद्युत परियोजनाओं के लिये आत्मदाह करे। इससे समाचार भी बनेगा और आप जनता की नजरों में भी आयेंगे। आत्महत्या के तमाम समाचारों को मुख्य पृष्ट पर जगह मिलती है। आपके योगदान को कारपोरेट, ठेकेदार, सरकार और बांधा बनाने वाली कंपनियां याद रखेंगी। प्रत्येक जलविद्युत परियोजना स्थल पर आपकी मूर्तियां स्थापित होंगी। आपको शहीद का दर्जा मिलेगा। गंगा वैसे भी लोगों के पापों को धोती है आपको भी धो देगी। इसलिये पद्यमश्री को जतन से संभाल कर रखिये ये आपकी सत्ता के साथ दलाली की पूंजी है।
       अगर अभी भी शरम-हया बांकी है तो जलविद्युत परियोजनाओं के बारे में सोचें और जनता के दर्द के साथ खडे हों। तुम्हारा पद्यमश्री तुम्हें मुबारक। यहां जनता खडी है नये तेवरों के साथ। उसके अपने दर्द हैं जो इन परियोजनाओं ने उन्हें उजाडकर दिये हैं। उत्तराखंड में स्थापित जलविद्युत परियोजनाओं और उनके प्रभावों पर एक सरसरी निगाह-
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    एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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    Charu Tiwari47 minutes ago · बांध, विकास और हकीकत
     -चारु तिवारी
     उत्तरकाशी में निर्माणाधीन लोहारी-नागपाला जलविद्युत परियोजना को बंद करने के फैसले के बाद बांध समर्थकों की लॉबी सक्रिय हो गयी है। यह पहला मौका है जब पहाड़ के संसाधनों की लूट के समर्थन में माहौल बनाया जा रहा है। यह सबकुछ अचानक नहीं हुआ है। विकास के नाम पर लोगों को बरगलाने का सिलसिला बहुत पुराना है। टिहरी बांध के विरोध में स्थानीय लोगों ने लंबी लड़ाई लड़ी। आखिर सरकार की जिद और विकास के छलावे ने एक संस्कृति और समाज को डुबो दिया। सबसे अफसोसजनक पहलू यह है कि मौजूदा बांधों के समर्थन में वे लोग हैं जो कभी प्राकृतिक संसाधनों पर पहला अधिकार स्थानीय जनता का मानते थे। मजेदार बात यह है कि हमेशा बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के साथ खड़े रहने वाली राष्ट्रीय पार्टियां तो चुप हैं, पहाड़ की सबसे बड़ी हितैषी उक्रांद बांधों के समर्थन में खुलकर सामने आयी है।
     राज्य में प्रस्तावित सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं से पूरा पहाड़ खतरे में है। इनसे निकलने वाली सैकड़ों किलोमीटर की सुरंगों से गांव खतरे में हैं। कई परियोजनाओं के खिलाफ लोग सडक़ों पर हैं। बांध निर्माण कंपनियों का सरकाप्तर की शह पर मनमाना रवैया जारी है। जिन स्थानों पर जनसुनवाई होनी है, वहां जनता के खिलाफ बांध कंपनियों और स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत से भय का वातावरण बनाया गया है। राज्य की तमाम नदियों पर बन रही सुरंग आधारित परियोजनाओं से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। सरकार ने चमोली जनपद के चाईं गांव और तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की सुरंग से रिसने वाले पानी से भी सबक नहीं लिया। यहां सुरंग से भारी मात्रा में निकलने वाले पानी से पौराणिक शहर जोशीमठ के अस्तित्व को खतरा है। चमोली जनपद के छह गांव पहले ही जमींजोद हो चुके हैं। तीन दर्जन से अधिक गांव इन सुरंगों के कारण कभी भी धंस सकते हैं। बागेश्वर जनपद मेप्तं कपकोट में सरयू पर बन रहे बांध की सुरंग से सुमगढ़ में भारी तबाही में १८ बच्चे मौत के मुंह में समा गये। भागीरथी पर बन रहे बांधों के खतरे सबके सामने हैं। टिहरी के जलस्तर बढऩे से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। बावजूद इसके बिजली प्रदेश बनाने की जिद में बांध परियोजनाओं को जायज ठहराने की जो मुहिम चली है वह पहाड़ को बड़े विनाश की ओर ले जा सकती है। अब पूरे मामले को छोटे और बड़े बांधों के नाम पर उलझाया जा रहा है। असल में बांधों का सवाल बड़ा या छोटा नहीं है, बल्कि इससे प्रभावित होने वाली जनता के हित बड़े हैं।
     उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों गंगा को अविरल बहने देने और आस्था के नाम पर प्रो. जीडी अग्रवाल हरिद्वार में धरने पर बैठे। सरकार ने उनकी जान बचाने की कीमत पर लोहारी-नागपाला परियोजना को बंद कर दिया। इसमेप्तं कोई दो राय नहीं कि इस तरह की सुरंग आधारित सभी परियोजनाओं को बंद किया जाना चाहिये, लेकिन इसमें जिस तरीके से गंगा को सिर्फ आस्था और १३५ किलोमीटर तक शुद्ध करने की बात है, वह बेमानी है। असल में धर्म और आस्था के नाम पर चलने वाली भाजपा सरकार और संतों से डरने वाली कांग्रेस के लिये जनता का कोई मूल्य नहीं है। पिछले चालीस वर्षों से जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध कर रही जनता की इन सरकारों ने नहीं सुनी। लंबे समय तक टिहरी बांध विरोधी संघर्ष की आवाज को अगर समय रहते सुन लिया होता तो आज पहाड़ों को छेदने वाली इन विनाशकारी जलविद्युत परियोजनाओं की बात आगे नहीं बढ़ी होती। लोहारी-नागपाला ही नहीं, पहाड़ में बन रही तमाम छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनायें यहां के लोगों को नेस्तनाबूत करने वाली हैं। प्रो. जीडी अग्रवाल के हिन्दू परिषद के एजेंट के रूप में काम करने का किसी को समर्थन नहीं करना चाहिये।
     उत्तराखण्ड में जलविद्युत परियोजनाओं का मामला आस्था से जुड़ा नहीं है। यह यहां गांवों को बचाने की लड़ाई है। गांव रहेंगे तो तभी आस्था भी रहेगी। इस बात का स्वागत किया जाना चाहिये कि केप्तन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने देश के विभिन्न हिस्सों में मुनाफाखोर विकास की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के कुछ अच्छे कदम उठाये हैं। उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में खान एवं जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ व्यापक आंदोलन और जनगोलबंदी का परिणाम है कि अब ऐसी परियोजनाओं से पहले सरकारों को दस बार सोचना पड़ेगा। फिलहाल उत्तराखण्ड में बांध निर्माण कंपनियां और उनके एजेंट के रूप में काम कर रहे राजनीतिक लोगों ने जिस तरह बांधों के समर्थन का झंडा उठाया है, वह विकास के नाम पर पहाड़ की ताबूत का अंतिम कील साबित हो सकता है।
     जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ मुखर हुयी आवाज  नई नहीं है। भागीरथी और भिलंगना पर प्रस्तावित सभी परियोजनाओं के खिलाफ समय-समय पर लोग सडक़ों पर आते रहे हैं। लोहारी-नागपाला से फलेण्डा और पिंडर पर बन रहे तीन बांधों के खिलाफ जनता सडक़ों पर है।  इस बीच जो सबसे बड़ा परिवर्तन आया है, वह है सरकार और बांध निर्माण कंपनियों का जनता को बांटने का षड्यंत्र। इसके चलते मौजूदा समय में पूरा पहाड़ समर्थन और विरोध में सुलग रहा है। केन्द्र और राज्य सरकार के बीच एक ऐसा अघोषित समझौता है जिसके तहत वह न तो इन परियोजनाओं के बारे मेें कोई नीति बनाना चाहते हैं और न ही बिजली प्रदेश बनानेप्त की जिद में स्थानीय लोगों के हितों की परवाह करते हैं। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि यदि इन सरकारों की चली तो पहाड़ में ५५८ छोटे-बड़े बांध बनेंगे। इनमें से लगभग १५०० किलोमीटर की सुरंगें निकलेप्तंगी। एक अनुमान के अनुसार अगर ऐसा होता है तो लगभग २८ लाख आबादी इन सुरंगों के ऊपर होगी। यह एक मोटा अनुमान सिर्फ प्रस्तावित बांध परियाजनाओं के बारे में है। इससे होने वाले विस्थापन, पर्यावरणीय और भूगर्भीय खतरों की बात अलग है।
     मौजूदा समय में एक नई बात छोटी और बड़ी परियोजना के नाम चलाई जा रही है। बताया जा रहा है कि पहाड़ में बड़े बांध नहीं बनने चाहिये। इन्हें रन ऑफ दि रीवर बनाया जा रहा है, इसलिये इसका विरोध ठीक नहीं है। लेकिन यह सच नहीं है। उत्तराखण्ड में बन रही लगभग सभी परियोजनायें तकनीकी भाषा में भले ही रन ऑफ दि रीवर बताये जा रहे हों या उनकी ऊंचाई और क्षमता के आधार पर उन्हें छोटा बताया जा रहा हो, लेकिन ये सब बड़े बांध हैं। सभी परियोजनायें सुरंग आधारित हैं। सभी में किसी न किसी रूप में गांवों की जनता प्रभावित हो रही है। कई गांव तो ऐसे हैं जो छोटी परियोजनाओं के नाम पर अपनी जमीन तो औप्तने-पौने दामों में गंवा बैठते हैं, लेकिन वे विस्थापन या प्रभावित की श्रेणी में नहीं आते हैं। जब सुंरग से उनके घर-आंगन दरकते हैं तो उन्हें मुआवजा तक नहीं मिलता। जान-माल की तो बात ही दूर है। सरकार और परियोजना समर्थकों की सच्चाई को जानने के लिये कुछ परियोजनाओं का जिक्र करना जरूरी है। जिस लोहारी-नागपाला को लेकर विवाद की शुरुआत हुयी है, उसे रन ऑफ दि रीवर का नाम दिया गया। इसमे विस्थापन की बात को भी नकारा गया।
     स्थानीय लोगों ने तब भी इसका विरोध किया था, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। यह परियोजना ६०० मेगावाट की है। इसमें १३ किलोमीटर सुरंग है। भागीरथी पर ऐसे १० और बांध हैं। इनमेप्तं टिहरी की दोनों परियोजनाओं और कोटेश्वर को छोड़ दिया जाय तो अन्य भी बड़े बांधों से कम नहीं हैं। इनमें करमोली हाइड्रो प्रोजेक्ट १४० मेगावाट की है। इसके सुुरंग की लंबाई आठ किलोमीटर से अधिक है। जदगंगा हाइड्रो प्रोजेक्ट ६० मेगावाट की है। इसकी सुरंग ११ किलोमीटर है। ३८१ मेगावाट की भैरोघाटी परियोजना जिसे सरकार ने निरस्त किया है, उसके सुरंग की लंबाई १३ किलोमीटर है। मनेरी भाली प्रथम ९० मेगावाट क्षमता की रन ऑफ दि रीवर परियोजना है। यह १९८४ में प्रस्तावित हुयी। इसे आठ किलोमीटर सुरंग में डाला गया है। इसका पावर हाउस तिलोय में है। इस टनल की वजह से भागीरथी नदी उत्तरकाशी से मनेरी भाली तक १४ किलोमीटर तक अपने अस्तित्व को छटपटा रही है। इसके बाद भागीरथी को मनेरी भाली द्वितीय परियोजना में सुरंग में कैद होना पड़ता है। ३०४ मेगावाट की इस परियोजना की सुरंग १६ किलोमीटर लंबी है। इसके बाद टिहरी १००० मेगावाट की दो और ४०० मेगावाट की कोटेश्वर परियोजना है। आगे कोटली भेल परियोजना १९५ मेगावाट की है। इसमें भी ०.२७ किलोमीटर सुरंग है।
     गंगा की प्रमुख सहायक नदी अलकनंदा पर दर्जनों बांध प्रस्तावित हैं। इन्हें भी रन ऑफ दि रीवर के नाम से प्रस्तावित किया गया। इस समय यहां नौ परियोजनायें हैं। इनमे ३०० मेगावाट की अलकनंदा हाइड्रो प्रोजेक्ट से २.९५ किलोमीटर की सुरंग निकाली गयी है। ४०० मेगावाट की विष्णुगाड़ परियोजना की सुरंग की लंबाई ११ किलोमीटर है। लामबगड़ में बनी इसकी झील से सुरंग चाईं गांव के नीचे खुलती है जहां इसका पावर हाउस बना है। यह गांव इसकी टरवाइनों के घूमने से जमीजोंद हो चुका है। लामबगढ़ से चाईं गांव तक नदी का अता-पता नहीं है। तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना इस समय सबसे संवेदनशील है। इस परियोजना की क्षमता ५२० मेगावाट है। इससेप्त निकलने वाली सुरंग की लंबाई ११.६४६ किलोमीटर है। यह ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर जोशीमठ के नीचे से जा रही है। इससे आगे ४४४ विष्णुगाड़-पीपलकोटी परियोजना है। इससे १३.४ किलोमीटर सुरंग निकली है। ३०० मेगावाट की बोवाला-नन्दप्रयाग परियोजना से १०.२४६ किलोमीटर की सुरंग से गुजरेगी। नन्दप्रयाग-लंगासू हाइडो प्रोजेक्ट १०० मेगावाट की है। इसमें पांच किलोमीटर से लंबी सुरंग बननी है। ७०० मेगावाट की उत्सू हाइड्रो प्रोजेक्ट की सुरंग की लंबाई २० किलोमीटर है। श्रीनगर हाइड्रो प्राजेक्ट जिसे पूरी तरह रन ऑफ दि रीवर बताया जा रहा था उसके सुरंग की लंबाई ३.९३ किलोमीटर है। यह परियोजना ३२० मेगावाट की है। अलकनंदा पर ही बनने वाली कोटली भेल- प्रथम बी ३२० मेगावाट की परियोजना है। यह भी सुरंग आधारित परियोजना है। गंगा पर बनने वाली कोटली भेल-द्वितीय ५३० मेगावाट की है। इसकी सुरंग ०.५ किलोमीटर है। चिल्ला परियोजना १४४ मेगावाट की है, इसमें से १४.३ किलोमीटर सुरंग बनेगी।
     जलविद्युत परियोजनाओं की सुरंगों के यह आंकड़े केवल भागीरथी और अलकनंदा पर बनने वाले बांधों के हैं इसके अलावा सरयू, काली, शारदा, रामगंगा, पिंडर आदि पर प्रस्तावित सैकडों बांधों और उसकी सुरंगों से एक बड़ी आबादी प्रभावित होनी है। अब सरकार और विकास समर्थक इसके प्रभावों को नकार रहे हैं। उनका कहना है कि पर्यावरणीय प्रभाव और आस्था के सवाल पर विकास नहीं रुकना चाहिये। असल में यह तर्क ही गलत हैप्त। जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण का विरोध पार्यवरण और आस्था से बड़ा स्थानीय लोगों को बचाने का है। इसके लिये आयातित आंदोलनकारी नहीं, बल्कि पिछले चार दशकों से वहां की जनता लड़ाई लड़ रही है। नदियों को बचाने से लेकर अपने खेत-खलिहानों की हिफाजत के लिये जनता सडक़ों पर आती रही है।
     जिस तरह इस बात को प्रचारित किया जा रहा है कि इन बांध परियोजनाओं की शुरुआत में लोग नहीं बोले, यह गलत है। लोहारी-नागपाला के प्रारंभिक दौर से ही गांव के लोग इसके खिलाफ हैं। भुवन चंद्र खण्डूड़ी के मुख्यमंत्रित्वकाल में लोहारी-नागपाला के लोगों ने उनका काली पट्टी बांधकर विरोध किया था। श्रीनगर परियोजना में भी महिलाओं ने दो महीने तक धरना-प्रदर्शन कर कंपनी की नीद उड़ा दी थी। लोहारी-नागपाला परियोजना क्षेत्र भूकंप के अतिसंवेदनशील जोन में आता है जहां डैम का निर्माण पर्यावरणीय दृष्टि से कतई उचित नहीं है। विस्फोटकों के प्रयोग से तपोवन-विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना में चाईं गांव विकास के नाम पर विनाश को झेल रहा है। यहां के लोगों ने १९९८-९९ से ही इसका विरोध किया था, लेकिन जेपी कम्पनी धनबल से शासन-प्रशासन को अपने साथ खड़े करने में सफल रही। आठ साल बाद २००७ में चाईं गांव की सडक़ें कई जगह से ध्वस्त हो गईं। मलवा नालों में गिरने लगा, जिससे जल निकासी रुकने से गांव के कई हिस्सों का कटाव और धंसाव होने लगा। गांव के पेड़, खेत, गौशाले और मकान भी धंस गये। करीब ५० मकान पूर्ण या आंशिक रूप से ध्वस्त हुए तथा १००० नाली जमीन बेकार हो गयी। ५२० मेगावाट वाली तपोवन-विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना का कार्य उत्तराखण्ड सरकार और एनटीपीसी के समझौते के बाद २००२ में प्रारम्भ किया गया, जिसमें तपोवन से लेकर अणमठ तक जोशीमठ के गर्भ से होकर सुरंग बननी है। निर्माणाधीन टनल से २५ दिसम्बर २००९ से अचानक ६०० लीटर प्रति सेकेंड के वेग से पानी का निकलना कंपनी के पक्ष में भूगर्भीय विश्लेषण की पोल खोलता है। इस क्षेत्र में विरोध करने वालों पर अनेक मुकदमे कायम किए गये हैं।
     चिपको आन्दोलन की प्रणेता गौरा देवी के गांव रैणी के नीचे भी टनल बनाना महान आंदोलन की तौहीन है। वर्षों पहले रैणी महिला मंगल दल ने परियोजना क्षेत्र में पौधे लगाये थे। परियोजना तक सडक़ ले जाने में २०० पेड़ काटे गये और मुआवजा वन विभाग को दे दिया गया। पेड़ लगाने वाले लोगों को पता भी नहीं चला कि कब ठेका हुआ। गौरा देवी की निकट सहयोगी गोमती देवी का कहना है कि पैसे के आगे सब बिक गया। रैणी से ६ किमी दूर लाता में एनटीपीसी द्वारा प्रारम्भ की जा रही परियोजना में सुरंग बनाने का गांववालों ने पुरजोर विरोध किया। मलारी गांव में भी मलारी झेलम नाम से टीएचडीसी विद्युत परियोजना लगा रहीप्त है। मलारी ममंद ने कम्पनी को गांव में नहीं घुसने दिया। परियोजना के बोर्ड को उखाडक़र फेंक दिया। प्रत्युत्तर में कंपनी ने कुछ लोगों पर मुकदमे लगा रखे हैं। इसके अलावा गमशाली, धौलीगंगा और उसकी सहायक नदियों में पीपलकोटी, जुम्मा, भिमुडार, काकभुसंडी, द्रोणगिरी में प्रस्तावित परियोजनाओं में जनता का प्रबल विरोध है।
     पिंडर नदी में प्रस्तावित तीन बांधों के खिलाफ फिलहाल जनता वही लड़ाई लड़ रही है। यहां देवसारी परियोजना के लिए प्रशासन ने १३ अक्टूबर २००९ को कुलस्यारी में जनसुनवाई रखी। कम्पनी प्रशासन ने बांध प्रभावित क्षेत्र से करीब १७ किमी दूर करने के बावजूद भी १३०० लोग इसमें पहुंचे। दूसरीप्त जनसुनवाई २२ जुलाई २०१० को देवाल में आयोजित की गई जिसमें करीब ६००० लोगों ने भागीदारी की। लोगों ने एकजुट होकर बांध के विरोध में एसडीएम चमोली को ज्ञापन सौंपा। इस जनसुनवाई में सीडीओ चमोप्तली ने ग्रामीण जनता को विश्वास में लेते हुए गांव स्तर पर जनसुनवाई करने की बात कही। १५ सितम्बर २०१० को थराली तहसील में मदन मिश्रा के नेतृत्व में देवाल, थराली, नारायणबगड़ की सैकड़ों जनता ने बड़े बांधोप्तं के विरोध में जोरदार प्रदर्शन कर बांधों के खिलाफ अपना अभियान जारी रखा।

    एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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    I don't agree with this. People who are in favour Dam are not aware of geography of Hills.

    उत्तराखंड में जल अधिकार यात्रा 21 मई से
    Updated on: Thu, 10 May 2012 06:54 PM (IST)
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    उत्तराखंड में जल अधिकार यात्रा 21 मई से

    हरिद्वार, जागरण संवाददाता: उत्तराखंड जनमंच जल विद्युत परियोजनाओं के समर्थन में 21 मई से राज्य में जल अधिकार यात्रा शुरू करेगा। इस यात्रा के जरिए प्रदेश के लोगों को बताया जाएगा कि जलविद्युत परियोजनाएं क्यों जरूरी हैं।

    गुरुवार को प्रेस क्लब में पत्रकार वार्ता में साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी ने यह जानकारी दी। उन्होंने आरोप लगाया कि कुछ संत प्रगति मार्ग में अवरोध पैदा कर रहे हैं। धर्म को विज्ञान के साथ जोड़कर समाज के हित में कार्य करना चाहिए। संतों की बातों से समाज गुमराह हो रहा है। उन्होंने परियोजना विरोधियों को सलाह दी कि जहां से गंगा में गंदगी शुरू हो रही है उसकी चिंता करें। गंगा में 100 से 1000 मेगावाट की परियोजनाओं की वकालत करते हुए उन्होंने कहा कि जनता को अपना फैसला खुद लेने का अधिकार दिया जाना जरूरी है। संतों को संन्यास धर्म का पालन करने की नसीहत देते हुए पदमश्री जगूड़ी ने कहा कि संत गृहस्थ जीवन में हस्तक्षेप बंद करें। उन्होंने हर बीस वर्ष में नदियों की मैपिंग का सुझाव भी दिया। समाजसेवी अवधेश कौशल ने आरोप लगाया कि परियोजनाओं को लेकर प्रो.जीडी अग्रवाल यानि स्वामी सानंद का आंदोलन राजनीति से प्रेरित है। उन्होंने कहा कि परियोजनाएं राज्य के हित में हैं। वैज्ञानिक डॉ. धीरेंद्र शर्मा ने कहा कि हाइड्रो प्रोजेक्ट से ही सबसे सस्ती बिजली मिल सकती है, हिमालय में दो लाख मेगावाट बिजली बनाने की क्षमता है। इसके अलावा पीपलकोटी-विष्णुगाड़, लोहारीनाग-पाला व भैंरों घाटी परियोजना शुरू न होने पर लीलाधर जगूड़ी व अवधेश कौशल ने 15 अगस्त को पदमश्री लौटाने का ऐलान भी किया। उत्तराखंड जनमंच से जुड़े राजन टोडरिया ने बताया कि 21 मई के बाद निश्चित तिथि घोषित की जाएगी। यात्रा देहरादून से शुरू होकर गंगोत्री तक जाएगी। 16 अगस्त से राज्य के सभी जिला मुख्यालयों पर उपवास होगा। जंतर-मंतर में तीन दिन का उपवास कार्यक्रम भी इस दौरान होगा।

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