Author Topic: Do you know this Religious Facts About Uttarakhand- उत्तराखंड के धार्मिक तथ्य  (Read 27939 times)

हेम पन्त

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चण्डिका मैया का एक प्रसिद्ध मन्दिर पिथौरागढ जिले में भी है.. घने जंगलों के बीच बसे इस मन्दिर में स्थानीय लोगों की बहुत आस्था है...
 

चंडिका मंदिर -

चंडिका देवी जिन्हें यह मंदिर समर्पित है, वह पास के नंदप्रयाग सहित सात गांवों की ग्राम देवी हैं। गर्भगृह में स्थापित चांदी की प्रतिमा प्रभावशाली है और स्वाभाविक तौर पर महान भक्ति का श्रोत है। परिसर के अन्य मंदिर भगवान शिव, भैरव, हनुमान, गणेश तथा भूमियाल को समर्पित हैं।

कहा जाता है कि नवरात्र समारोह के दौरान वर्तमान पुजारी के एक पूर्वज को स्वप्न आया कि अलकनंदा देवी की एक मूर्ति नदी में तैर रही है। इस बीच वहां मवेशियों को चराने गये कुछ चरवाहों ने उसे देखा और उसे निकालकर एक गुफा में छिपा दिया। वे शाम तक घर नहीं लौटे तो गांव वासियों ने उनकी खोज की और उन्हें गुफा में छिपायी मूर्ति की बगल में अचेतावस्था में पाया। पुजारी मूर्ति को घर ले गया और फिर उसके बाद एक दूसरा स्वप्न श्रीयंत्र की खोज करने का आया जो एक खेत में छिपा था। उसने ऐसा ही किया। उसे और आगे यह आदेश मिला कि किस प्रकार मूर्ति के लिये उपयुक्त ढ़ांचे का निर्माण शहतूत की पेड़ की लकड़ी से किया जाय। यह स्थल लगभग 300 वर्ष पुराना है एवं मंदिर की देखभाल एक स्थानीय मंदिर समिति द्वारा होती है। यहां बड़े हर्षोल्लास से नवरात्र मनाया जाता है। परंपरागत रूप से देवी को पसुआ की बांहों में उठा सकता है, पर अब एक डोली में ले जाया जाता है।


Devbhoomi,Uttarakhand

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रवांई, जौनपूर, जौनसार व बाबर पांडव मंडाण (नृत्य) को लेकर मान्यता है कि जीवन के अन्तिम समय पांडवों ने इसी जगह से स्वर्गारोहिणी में प्राण त्यागे। पहाड़ों में आज भी पांडवों को जीवित माना जाता है तथा गांव-गांव में पश्वा के रूप में महिला, पुरूषों में देवता के रूप में अवतरित होते हैं। वहीं, छोटी उम्र में अकाल मृत्यु के ग्रास बनने वाले पितरों को देवी, देवताओं के समान श्रेष्ठ स्थान देने को गांव-घरों में तीन व पांच दिन के घडियाले (जागर) लगाये जाते हैं। इस दौरान बाजगी ढ़ोल दमाऊ और पेलई गाथाओं से देवताओं को झूलने के लिए मजबूर कर देते हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Uttarkashi - Where Mahabharta's 'Karna' (कर्ण)  is worshiped.
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मोरी के सिगतूर, अडोर व गडूगाड़ पट्टियों के 27 गांव दणकाण गांव, सुचाण गांव, कोटगांव, देवरा, नैटवाड़, गराड़ी, पासा, पोखरी, पैंसर, पोखरी, नानाई, डोभाल गांव, खरसाड़ी में दानवीर कर्ण महाराज को ईष्ट देवता के रूप में पूजा जाता है। गांव की खुशहाली व कुशलक्षेम जानने के लिए प्रत्येक वर्ष कर्ण महाराज क्षेत्र के गांव का भ्रमण कर लोगों को आशीर्वाद देते हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मंदिर में निसंतान दंपतियों का तांता
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गोपेश्वर।। उत्तराखंड के सुविख्यात माता अनुसूया मंदिर में निसंतान दंपतियों की भीड़ जुटने lagtee है। इस मौके पर यहां एक खास मेला भी लगता है।

अपनी तरह के इस अनोखे मेले में दंपतियों ने रात भर माता अनुसूया के मंदिर में जप और आराधना के साथ पुत्र प्राप्ति की मनोकामना की। निसंतान दंपतियों की सुविधा के लिए अनुसूया मंदिर समिति की ओर से श्रद्धालुओं का रजिस्ट्रेशन भी किया गया, ताकि मंदिर में दर्शन-पूजन की सुव्यवस्था बनाई रखी जा सके।

उत्तराखंड के सीमांत जिले चमोली के मुख्यालय गोपेश्वर से 15 किमी की दूरी पर घने बांज बुरांश के जंगलों में माता अनुसूया का मंदिर और अत्रिमुनि महाराज का आश्रम है। यहां पर हर साल दत्तात्रेय जयंती पर मेला लगता है। मान्यता है कि इस दिन मंदिर में दर्शन कर जो दंपती सच्चे मन से संतान होने का वरदान मांगता है, उसकी मनोकामना जरूरी पूरी होती है। इस मान्यता के चलते पूरे राज्य से निसंतान दंपति इस खास मौके पर अनुसूया मंदिर में जुटते है और रात भर जप और आराधना करते है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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श्री रघुनाथ मंदिर (Dev Prayag)

 सतयुग में देव शर्मा ब्राहमण मुनी के कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें यहां दर्शन दिए थे। त्रेतायुग में भगवान श्री राम जब प्रायश्चित के लिए तप करने यहां पहुंचे तो उन्होंने इस तीर्थ को देवशर्मा के नाम से देवप्रयाग नाम दिया। तभी से यहां भगवान विष्णु श्री राम के रूप में पूजे जाते हैं। मूलरूप से दक्षिण भारतीय देवप्रयाग तीर्थ पुरोहित समाज में महापूजा परंपरा चली आ रही है। पौष माह की शुरूआत होते ही भगवान श्री रघुनाथ मंदिर में ढोल-नगाडे़ व शंख ध्वनि गूंजने लगती है जिसमें जयराम जी की जय जय स्तुति प्रमुख रूप से गायी जाती है। महापूजा में भगवान का पूरे माह विशेष श्रृंगार होता है व खिचड़ी का भोग लगता है। खिचड़ी का प्रसाद लेने के लिए यहां श्रद्धालुओं में होड़ लगती है। पौष माह में रविवार का विशेष महत्व होने से उस दिन मंदिर में बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। वर्षभर नगरवासी व क्षेत्रवासी महापूजा की प्रतिक्षा करते हैं। कड़ाके की ठंड में भी सुबह सवेरे बड़े बुजर्ग, महिलायें व युवा श्री रघुनाथ मंदिर में जुट जाते हैं और महापूजा में भाग लेकर वह अपने को धन्य समझते हैं।

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     मणिकूट पर्वत परिक्रमा का फल
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मणिकूट हिमालय व नीलकंठ महादेव के पौराणिक इतिहास को अनेक लेखकों ने स्कंद पुराण के केदारखंड से जोड़ने का प्रयास किया, परंतु केदार खंड के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस पुराण में कहीं भी मणिकूट नीलकंठ महादेव की चर्चा तक नहीं है। न ही यमकेशवर महादेव का वर्णन है। परंतु देवाधिदेव महादेव जी द्वारा प्रणीत ‘योगिनी यंत्र’ के नौवें पटल में मणिकूट तथा नीलकंठ महादेव का वर्णन मिलता है। ‘योगिनी यंत्र’ में भगवान शंकर व पार्वती संवाद है, जिसमें पार्वती भगवान शंकर से प्रश्न करती हैं और भगवान शंकर उनके प्रश्नों का उत्तर देते हैं। तत: प्रभाते देवेशि मणिकूटस्थ चौत्तरे
वल्ल भाख्या नदी पुण्या सर्व पापप्रमोचनी
अर्थात शिवशंकर पार्वती से कहते हैं कि प्रभात काल में मणिकूट के उत्तर की और सब पापों का नाश करने वाली बल्लभा नदी बहती है। बल्लभा नदी में माघ या फाल्गुन के महीने में चतुर्दशी में स्नान करने से महापातक नष्ट होते हैं और बल्लभा नदी में स्नान करने के पश्चात नीलकंठ के दर्शन करने से सात जन्मकृत पाप नष्ट होते हैं। मणिकूट पर्वत से तीन पवित्र नदियों के निकलने का उल्लेख मिलता है। ये नदियां नंदिनी, पंकजा व परमोत्तम मधुमती नदी हैं। इन नदियों की उपासना की गयी है और इन्हें पापों का नाश करने वाली, कल्याणकारी बताया गया है।
मणिकूटस्थ पूर्वे तु नाति दूरे महेश्वरी।
विष्णु पुष्कारक नाम सर्वतार्थोभ्दवं जनम।।
अर्थात मणिकूट के पूर्व में थोड़ी ही दूर विष्णु पुष्कर नामक सर्व तीर्थो के जल से परिपूर्ण एक तीर्थ है। मणिकूटाचल में विष्णु भगवान हृयग्रीव का रूप धारण करके अवस्थित है। मणिकूट पर्वत की प्रार्थना करते हुए कहा गया है।
मणिकूट गिरिश्रेष्ठ पतिवर्ण त्रिलोचन।
त्वदधारोहणं कृत्वा द्रक्ष्यामि भवनं तथा।।
अर्थात ‘हे गिरिश्रेष्ठ मणिकूट तुम त्रिनेत्रधारी हो और आपका पीला वर्ण है।, तुम्हारे आरोहण करके मंदिरों का दर्शन करते हैं? मणिकूट पर्वत पर पूर्व अथवा उत्तर मुख करके चढ़ना चाहिए। मणिकूट पर्वत पर मुख्य रूप से भगवान विष्णु के अवतार हृयग्रीव विष्णु की उपासना की जाती है।
इडासुर हयग्रीव मुरारे मधुसूदन।
मणिकूट कृतावास हयग्रीव नमोस्तुते।।
अर्थात हे इडासुर! हे हयग्रीव! हे मुरारे! हे मधुसूदन! हे मणिकूट में वास करने वाले! हे हृयग्रीव! मैं आपको नमस्कार करता हूं। मणिकूट पर्वत स्वयं शिवस्वरूप है। मणिकूट पर्वत को त्रिलोचन कहा गया है। मणिकूट पर्वत में नरसिंह व नागराजा की पूजा की महत्ता है। केदार खंड में चंद्रकूट पर्वत के ऊपर भगवती भुवनेश्वरी के मंदिर के होने का वर्णन है। कुछ लेखक चंद्रकूट व मणिकूट को एक ही नाम मानते हैं। यदि इसमें तर्कसंगत है तो पवित्र बल्लभ नदी कालिकुण्ड होकर घूटगड़ में हेमवती/ हिवल नदी में मिलती है। वर्तमान में मणिकूट पर्वत को एक चोटी तक सीमित करके नहीं रखा जाता बल्कि ऋषिकेश से हरिद्वार के मध्य गंगा तट के पूर्वी भाग के पर्वत मालाओं का शिख मणिकूट कहलाता है। लक्ष्मण झूला फूलचट्टी से लेकर बिंदुवासिनी गौरीघाट तक मणिकूट पर्वत का आधार क्षेत्र है। मणिकूट के निकटवर्ती पर्वतों को मणिकूट पर्वत श्रृंखला नाम दिया गया है। जहां मणिरत्नों का विशाल भंडार है तथा जो स्त्री पुत्र व धनधान्य दाता है। तपस्वी मणिकूट की परिक्रमा अलौकिक शक्तियों के संग्रह करने तथा परमात्मा प्राप्ति के लिए करते थे। गृहस्थ श्रद्धालु मणिकूट की परिक्रमा सांसारिक लाभ के लिए करते रहे हैं। अधिकांश श्रद्धालु पारिवारिक सुख, पुत्र प्राप्ति, धन सम्पदा चाहने हेतु करते रहे हैं। मणिकूट परिक्रमा पहले एक ही दिन (सतवा तीज) मौन रहकर नंगे पैर भी की जाती थी, पदयात्रा को कठिन महसूस करने के कारण लोगों ने धीरे-धीरे इस यात्रा को त्याग ही दिया। हिमालय का महत्वपूर्ण क्षेत्र मणिकूट-हिमालय देवभूमि व तपोभूमि दोनों हैं। यहां महर्षि कण्व वंश के 33 ऋषि वेदमंत्रों के दृष्टा रहे हैं। इन ऋषियों का प्रमुख मुख्यालय कण्वाश्रम था। नीलकंठ महादेव, भुवनेश्वरी मंदिर झिलमिल गुफा, विंदवासिनी मंदिर जैसे पवित्र तीर्थ स्थानों का वर्तमान समय में भक्तों के बीच प्रसिद्ध करने में संतो-साधुओं का योगदान है। कालीकुण्ड बाल कुवांरी मंदिर, गणेश गुफा आदि प्रसिद्धि बाहर के श्रद्धालुओं में धीरे-धीरे पहुंच रही है।
सर्वशक्तिमान माता भुवनेश्वरी एवं त्रिलोकी नाथ नीलकंठ महादेव को अपने शिखर पर धारण करने वाले तपोस्थली ऊर्जावान, दिव्यगुरु तत्व को गर्भ में छुपाए हुए माता गंगा को अपने आगोश में संजोये हुए द्रोण, विन्वेकश्वर, महावगढ़ भैरवगढ़ी नागदेवगढ़ आदि पौराणिक पर्वत श्रंखलाओं के मध्य स्थिति, दैविक, दैहिक, भौतिक त्रिविध संतापों को दूर करने वाला दिव्य मानवों को आलौकिक शक्ति, भक्ति सुख शांति, मोक्ष व चमत्कारिक शक्ति प्रदान करने वाले पर्वतराज मणिकूट हैं। जिसकी अलौकिकता, दिव्यता व पवित्रता का वर्णन वेद और शास्त्रों में भी मिलता है। जिसमें स्थित प्रसिद्ध बारह द्वार हैं। इन बारह द्वारों का पूजन एवं परिक्रमा का शुभारंभ 25 फरवरी 2010 शुक्ल पक्ष, एकादशी प्रात: सूर्योदय से तथा समापन 26 फरवर्री 2010 द्वादशी सूर्यास्त को होगा। यह परिक्रमा साधारण परिक्रमा नहीं है। इस परिक्रमा का महत्व शिव परिक्रमा के तुल्य है। कठिन जरूर है लेकिन असंभव नहीं। मणिकूट परिक्रमा का उद्देश्य गुरुतत्व को जागृत करना, समस्त जीवलोक की सुख शांति एवं समृद्धि हेतु, विश्व शांति एवं कल्याण हेतु भारत की एकता, अखंडता, आदर्शता व सत्यता व समस्त विश्व मानव जाति के उत्थान एवं सत चरित्रतता प्रदान करना है।

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19 वर्ष बाद जखोली बडमा में महायज्ञ का आयोजन
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रुद्रप्रयाग, मुन्ना देवल में 19 वर्ष बाद नौ दिवसीय श्री मुन्नेश्वराय मुनिजी के मंदिर में महायज्ञ आरंभ हो गया है। इस अवसर पर हजारों श्रद्धालुओं ने विशाल जल यात्रा का आयोजन कर मुनि जी का अभिषेक किया।

विकास खंड जखोली के अन्तर्गत बडमा पट्टी के मुन्ना देवल में चल रहे नौ दिवसीय महायज्ञ के पहले दिन कार्यक्रम के मुख्य अतिथि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व आवास एवं क्षेत्रीय विकास समिति के अध्यक्ष योगेन्द्र खण्डूडी व पूर्व जिला पंचायत सदस्य वीरेन्द्र बुटोला ने स्व राम प्रसाद मैठाणी की समृति में निर्मित मुन्नेश्वराय मंदिर का लोकार्पण किया। इस अवसर पर खण्डूडी ने कहा कि यज्ञ एवं इस प्रकार के धार्मिक आयोजनों का आध्यात्मिक महत्व के साथ-साथ मानव जीवन के लिए व्यवहारिक उपयोगिता भी है। कहा कि मंत्रोचारण से वहां उपस्थित जनसमूह का मन मस्तिष्क शुद्ध व एवं स्थित हो जाता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वीरेन्द्र बुटोला ने कहा कि इस तपोभूमि की हर समस्या का समाधान का प्रयास किया जाएगा। इस स्थान को पर्यटक के नक्शे पर अंकित करने का प्रयास किया जाएगा।

इस अवसर पर पूर्व जिपंस शान्ति भट्ट, सुखवीर सिंह, महेन्द्र सिंह, अनुसूया प्रसाद, मदन सिंह, सुखदेव, सिंह, महादेव मैठाणी, देवी प्रसाद काडपाल सहित कई श्रद्धालु उपस्थित थे।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_7237859.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जी रया जागि रया, य दिन य मास भेटनै रया


देवभूमि उत्तराखंड में यों तो पूरे वर्ष भर अनेक त्यौहार हर्ष व उल्लास के साथ मनाने की परम्परा प्राचीन काल से ही है। शीत ऋतु के अवसान और वसन्त ऋतु के आगमन से पूर्व मनाये जाने वाले वसन्त पंचमी (श्री पंचमी) के त्यौहार को पहाड़वासी ही नहीं, बल्कि प्रकृति भी निराले अंदाज में मनाती है। इस पर्व को विद्या की अधिष्ठात्री मां सरस्वती के जन्म दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। मनुष्यों में भले ही जीवन की भागमभाग और दुनिया भर के फितूरों की वजह से त्यौहारों की धुंधली स्मृतियां ही रह गई हों लेकिन ऋतु परिवर्तन के इस त्यौहार को प्रकृति अपने स्वाभाविक अंदाज में अवश्य मनाती है। उत्तराखंड में प्राचीन काल से ही वर्ष भर विभिन्न प्रकार के त्यौहार मनाये जाने की परम्परा है। इनमें शिवरात्रि, मकर संक्रान्ति (घुघुतिया), हरेला, रामनवमी, दीपावली, दशहरा, होली, फूलदेई, नाग पंचमी और बसन्त पंचमी आदि शामिल हैं। पहाड़ों में हाड़ कंपाती शीत ऋतु के अवसान और ग्रीष्म ऋतु से पूर्व मनभावन वसन्त के आगमन की खुशी में मनाया जाने वाला त्यौहार वसन्त पंचमी के नाम से जाना जाता है। इस दिन पीला रूमाल धारण करने की भी प्रथा है। वसन्त पंचमी के दिन जौ की पत्तियों को देवी देवताओं पर चढ़ाया जाता है। महिलाएं अपने बच्चों व लड़कियां अपने भाइयों का तिलक लगाकर जी रया जागि रया य दिन य मास भेटने रया के आशीर्वचनों के साथ उनके माथे पर जौ की पत्तिया रखती हैं। वर्फ और पाले की मार के बावजूद मौसम के करवट बदलने पर जौ के पौधे खेतों में आकर्षक हरियाली के साथ बढ़ते हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी सदैव हरा भरा रहने की वजह से जौ की पत्तियों को सिर में रख कर आशीर्वाद देने की पुरानी प्रथा पहाड़ों में है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जंगलचट्टी:
यदि तुंगनाथ की चढ़ाई न करनी हो, तो चोपता से सीधे जंगलचट्टी पहुंच सकते हैं। यहां 12 मील पर श्री महादेव जी का मंदिर है, परशुराम जी का फरसा तथा अष्टधातु का त्रिशूल दर्शनीय है। यहां वैतरणी नदी बहती है। यहां ऋषिकेश से सीधे बद्रीनाथ जाने वाली सड़क मिलती है, जो जोशीमठ तक जाती है।

मंडलचट्टी से एक मार्ग अमृतकुंड जाता है। इस मार्ग में अनुसूयामठ, अत्रि आश्रम, दत्तात्रेय आश्रम तथा अमृतकुंड मिलते हैं। मंडलचट्टी से एक मार्ग रूद्रनाथ को भी जाता है। रूद्रनाथ चतुर्थ केदार माने जाते हैं। पीपलकोटी से एक मार्ग गोहनताल जाता है। यह स्थान मनोरम है। हेलंग से अलकनंदा का पुल पार करके एक मार्ग कल्पेश्वर शिव मंदिर आता है

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सामान्यत: देवी-देवताओं, अच्छाइयों के प्रतीक महान व्यक्तियों, गुरु, माता-पिता की पूजा-अर्चना की जाती हैं। इसके अतिरिक्त यदि किसी बुराई के प्रतीक की पूजा की जाए तब यह बात अवश्य ही आश्चर्यजनक है। क्या आप जानते हैं बुराई के प्रतीक महाभारत काल के मुख्य खलनायक धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन की आज भी पूजा की जाती है।
यह बात सुनने में जरूर अजीब है लेकिन यह सच है कि आज भी कुछ स्थानों पर हिंदू धर्म के सभी देवी-देवताओं की पूजा से पहले दुर्योधन को पूजा जाता है। महाभारत काल, एक ऐसा समय था जब धर्म और अधर्म का महासंग्राम हुआ। इस महायुद्ध में असंख्य लोगों ने अपने प्राणों की आहूति दी। दुर्योधन को कुरुक्षेत्र में हुए इस भीषण नरसंहार जिम्मेदार माना जाता है। दुर्योधन ने पूरे जीवन में कई ऐसे कृत्य किए जिन्हें अधर्म की श्रेणी में रखा जाता है। श्रीकृष्ण सहित सभी धर्म के ज्ञाता महात्माओं ने दुर्योधन को धर्म के पथ पर चलने की नीतियां समझाई लेकिन वह सभी असफल रहीं।
उस समय दुर्योधन धर्म के मार्ग पर चलने वाले सभी लोगों की घृणा का पात्र था। सभी उसके कृत्यों के कारण उसे आज भी बुराई का प्रतीक माना जाता है। इन्हीं कारणों से दुर्योधन को पूजनीय नहीं माना जाता लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनकी आस्था का केंद्र है दुर्योधन।
भारत के उत्तराखंड में स्थित है एक क्षेत्र, जहां दुर्योधन को पूजा जाता है। इस क्षेत्र को हर की दून के नाम से जाना जाता है। :D
 
It is also said that Duyodhan killed demon here.
 
http://www.bhaskar.com/article/parampara-worship-of-duryodhan-1916750.html

 

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