Author Topic: Do you know this Religious Facts About Uttarakhand- उत्तराखंड के धार्मिक तथ्य  (Read 27940 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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  शनिदेव की बहन हैं सूर्यपुत्री यमुना           द्वारिका सेमवाल, बड़कोट :
विश्व प्रसिद्ध यमुनोत्री धाम अनेकों धार्मिक परंपराओं व मान्यताओं को स्वयं में समेटे हुए सर्वश्रेष्ठ महातम्य के लिए प्रसिद्ध है। सूर्यपुत्री होने के नाते यमुना को शनिदेव की बहन माना जाता है। खरसाली गांव में समेश्वर देवता के रूप में पूजे जाने वाले शनिदेव की डोली हर साल कपाट खुलने व बंद होने पर बहन की डोली के साथ होती है। खरसाली के ग्रामीण सदियों से इस विशिष्ट परंपरा के वाहक बने हुए हैं।
  यमुनोत्री धाम के प्रवेश द्वार बड़कोट से 43 किलोमीटर जानकीचट्टी तक मोटर मार्ग और जानकीचट्टी से पांच किमी पैदल 3135 मीटर की ऊंचाई पर यमुनोत्री धाम स्थित है। पुराणों के अनुसार यमुना कांठा ही कालिंदी पर्वत है और इसी पर्वत की बेटी कालिंदजा है। कालिंद सूर्य का ही दूसरा नाम है और यमुना सूर्य की पुत्री हैं। सूर्य पुत्री यमुना को सूर्य देव का वरदान है कि जो भी व्यक्ति यमुनोत्री धाम में आकर यमुना में स्नान करेगा, उसके पापों का नाश होने के साथ ही शनि की वक्रदृष्टि और यम यातना से मुक्ति मिलेगी। मान्यता है कि सूर्य की दो पत्‍ि‌नयां संज्ञा और छाया थी, संज्ञा से यमुना व यम हुए जबकि छाया से शनिदेव। पौराणिककाल से ही शनिदेव की डोली भैयादूज के दिन यमुना को लेने यमुनोत्री धाम जाती है और छह: माह बाद खरसाली से यमुनोत्री धाम छोड़ने भी शनिदेव की डोली ही जाती है। खरसाली गांव में शनिदेव यानी समेश्वर महाराज को आराध्य माना जाता है। खरसाली के ग्रामीण सदियों से पूरी आस्था और उत्साह के साथ इस परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। प्रत्येक वर्ष अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर यमुनोत्री धाम के कपाट श्रद्धालुओं के लिए दर्शनार्थ खोल दिये जाते हैं। जबकि भैयादूज कार्तिक शुक्ल (यम द्वितीया) के दिन यमुनोत्री धाम के कपाट छह माह के लिए बंद कर दिये जाते हैं, जिसके बाद मां यमुना के दर्शन उनके मायके खरसाली गांव में किये जाते हैं। मंदिर समिति के सचिव पं.खिलानन्द उनियाल, पं.पवन उनियाल कहते हैं कि यमुनोत्री में यमुना में स्नान करने से ही मानव को मुक्ति मिल जाती है, जो व्यक्ति यम द्वितीया को यमुना के दर्शन करके रात्रि में यमुनोत्री में निवास करते हैं उनके सभी पाप धुल जाते हैं। कार्तिक शुक्ल द्वितीया का कल्याणकारी दिन मृत्यु देवता यमराज की पूजा का शुभ दिन होता है, जिसे सभी लोग यम द्वितीया या भैयादूज के नाम से जानते हैं।
    http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_7681016.html

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thanks a lot Mehta jee for starting such a wonderful thread... this will give deep insight into Uttrakhand's richness..

Devbhoomi,Uttarakhand

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तिरुपति से कर्ज वसूल बदरीशपुरी लौटे कुबेर
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अपनी खाली झोली भरने के लिये भक्त भगवान नारायण की शरण में आते हैं, लेकिन भक्त वत्सल भगवान बदरी नारायण तो स्वयं कुबेर जी के कर्जदार हैं। इसी कर्ज की वसूली के लिए प्रतिवर्ष यात्रा के दौरान कुबेर जी गर्भ गृह में विराजमान होते हैं, लेकिन मूलधन के बजाय सिर्फ ब्याज ही वसूल हो पा रहा है।

इस संबंध में बदरीशपुरी में दो कथाएं प्रचलित हैं। पौराणिक धर्म कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु ने कुबेर से कर्ज लिया था जिसे जल्द ही लौटाने का वादा भी उन्होंने किया था, किन्तु परिस्थितिवश भगवान कुबेर से लिया कर्ज वापस नहीं कर सके।

अधिक वक्त गुजरने के कारण कुबेर को धन की चिन्ता सताने लगी और उन्होंने निश्चय किया कि स्वयं ही बदरीधाम आकर भगवान विष्णु के पास छह माह रहेंगे और जैसे जैसे धन आयेगा तो उन्हें भी उनकी रकम वापस मिलती रहेगी, लेकिन कुबेर द्वारा कर्ज दिया गया धन इतना अधिक था कि इस पर अत्यधिक ब्याज चढ़ता गया और आज भी भगवान विष्णु कुबेर का दिया हुआ ऋण पूरी तरह नहीं लौटा सके। बाकी बचे धन की वसूली के लिये आज (रविवार को) कुबेर जी फिर बदरीधाम पहुंचे।

 अब वह अपने दिए गए धन की वापसी के लिए छ: माह तक भगवान बदरी विशाल के साथ रहेंगे। दूसरी कथा के अनुसार, भगवान तिरुपति द्वारा कुबेर से लिये गये कर्ज को वसूल करने के लिये कुबेर छह माह तिरुपति बालाजी जाते हैं।

 धर्म शास्त्रों के अनुसार तिरुपति भगवान जब राजकन्या पद्मावती से विवाह करना चाहते थे तो इस विवाह को राजसी ठाठबाट से करने के लिए तिरुपति भगवान ने कुबेर जी से धन कर्ज लिया था। धर्म शास्त्रों के अनुसार राजकुमारी पद्मावती के पिता की शर्त थी कि अगर तिरुपति राजसी ठाठबाट से विवाह करेंगे तो ही वे पद्मावती का हाथ उनके हाथ में देंगे।

 माधव जी तो थे गरीब ब्राहमण, सो उन्होंने भी धन के राजा कुबेर से कर्ज तो ले लियापर चुकाया नहीं। इसी वसूली के लिये शीतकाल के दौरान कुबेर जी तिरुपति बालाजी जाते हैं और फिर लौट कर कपाट खुलने पर अपने मूल स्थान बदरीनाथ पहुंचते हैं।


''तिरुपति भगवान जब राजकन्या पद्मावती से विवाह करना चाहते थे, तो पद्मावती के पिताजी की शर्त थी कि बारात राजसी ठाठ बाट से आये। माधव जी गरीब ब्राहमण थे, और उनके पास कुछ नहीं था। इसीलिये हिमालय में आकर कुबेर जी से कर्जा लिया, और तब हर वर्ष सूद देने की बात कही गई थी। तिरुपति जी मनौतियों के देवता हैं और प्रतिवर्ष शीतकाल में कुबेर जी उनसे अपनी वसूली करते हैं।''

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_7695513.html

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पौराणिक कुंडों की नगरी है बड़कोट

देवभूमि उत्तराखंड के सीमांत जनपद उत्तरकाशी के प्रमुख नगर बड़कोट का बड़ा ही ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्व है। पवित्र यमुना नदी के तट पर बसी यह नगरी जहां अपने प्राकृतिक सौंदर्य और स्वास्थ्यप्रद जलवायु के चलते पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों को आकर्षित करती है, वहीं बड़कोट की धरती पर हर कहीं खुदाई के दौरान निकलते जल कुंडों इसकी ऐतिहासिकता को प्रमाणित करते हैं।

 नगर में भवन निर्माण के दौरान अब तक एक दर्जन से भी अधिक कुंडों के साक्ष्य मिले हैं, जबकि दर्जनों भवन स्वामियों ने कुंड निकलने पर निर्माण कार्य बंद करवा दिया। मान्यता के अनुसार नगर क्षेत्र में 360 पौराणिक कुंड मौजूद हैं, जो कि परशुराम प्रकोप के बाद बने थे।
बड़कोट नगर में निकले हुए कुंडों एवं निकल रहे कुंडों को लेकर कोई एक मत नहीं है।

मान्यता है कि राजा सहस्रबाहु यहां पर अपने राज्य की अदालत लगाया करते थे। इस दौरान बड़कोट से कुछ ही दूरी पर स्थित थान गांव में यमदग्नि ऋषि का आश्रम था और ऋषि ने सहस्रबाहु को सेना सहित भोज पर बुलाया। भोज करने के उपरांत सहस्रबाहु ने यमदग्नि ऋषि से कामधेनु गाय देने की मांग की। इस पर ऋषि ने कामधेनु देने से मना कर दिया।

 इससे राजा ने क्रोधित होकर ऋषि को मार दिया। इसी ब्रह्महत्या का प्राश्चित करने के लिए सहस्रबाहु ने बड़कोट में एक वृहद मुख्य कुंड सहित 360 कुडों की स्थापना की थी। वहीं दूसरी मान्यता यह भी है कि सहस्रबाहु ने जब यमदग्नि ऋषि की हत्या कर दी तो ऋषि पुत्र परशुराम ने 21 बार अहंकारी एवं अत्याचारी क्षत्रिय राजाओं का वध किया।

 इसके प्रायश्चित के लिए उन्होंने यमुना नदी के तट पर स्थित बड़कोट में एक प्रमुख कुंड सहित सैकड़ों जल कुंडों की स्थापना की। जो कि बड़कोट नगर में कहीं भी खुदाई करने पर कुछ ही गहराई में निकलने शुरू हो जाते हैं। पूर्व में निकले एक दर्जन से भी अधिक कुंड बड़कोट में आज भी विद्यमान हैं और वर्ष 2000 में नगर के बीचों-बीच स्थित आरा मशीन के पास एक साथ दो पौराणिक कुंड निकले। आरा मशीन के मालिक गोविन्द राम डोभाल का कहना है कि वे भवन निर्माण के लिए नींव खोद रहे थे।

 इस दौरान वहां से एक साथ दो पौराणिक कुंड निकले। इस पर उन्होंने खुदाई बंद कर उस स्थान को पूजा स्थल के रूप में बना दिया। कुंड में विष्णु की मूर्ति सहित दो द्वारपाल, एक बौखनाग और एक गणेश की मूर्ति भी क्रमवार लगी थी, जो आज भी उसी अवस्था में स्थापित है। इन कुंडों एवं मूर्तियों को देखने के लिए श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों की आवाजाही बनी हुई है, लेकिन इनके संरक्षण को लेकर आज तक भी शासन-प्रशासन की ओर से कोई पहल नहीं की गई है।

यहां निकले हैं कुण्ड गढ़ के पास बड़कोट गांव में - मुख्य बड़ा कुण्ड चन्द्रेश्वर मंदिर में

गढ़ के पास बड़कोट गांव में - मुख्य बड़ा कुण्ड

चन्द्रेश्वर मंदिर में -             एक कुंड

इंटर कॉलेज प्रांगण में -        एक कुंड

डोभाल आरा मशीन के पास -   दो कुंड

बस अड्डे के पास -          एक कुंड

कालिका पैलेस के पास -      एक कुंड
नांदिण के निकट -             एक कुंड

SOURCE DAINIK JAGRAN

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भीम पांव : जहां मंदाकिनी ने ली थी पांडवों की परीक्षा

गुप्तकाशी। केदारघाटी में बिखरे पांडवकालीन कई मठ-मंदिर, तरणताल तथा अस्त्र-शस्त्रों को देखने के लिए प्रतिवर्ष सैकड़ों पर्यटक व तीर्थयात्री आकर वशीभूत होकर अध्यात्म में खो जाते हैं। वहीं कईं ऐसे पांडवकालीन अवशेष भी क्षेत्र में मौजूद हैं, जिनके बारे में आज तक किसी को भी मालूम नहीं है। ऐसा ही एक अवशेष मस्ता-कालीमठ पैदलमार्ग के अन्तर्गत रिड़कोट पुल के दोनों ओर स्थित विशाल शिलाखंडों पर भीम पांव है। लगभग डेढ़ फीट लम्बी तथा आधा फीट चौड़ी इन आकृतियों को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ये पैर पांडवकालीन किसी मनुष्य के रहे होंगे। पांचों अंगुलियों की आकृतियों को अपने में समेटे इन पैरों के बारे में जनश्रुति है कि जब गोत्र हत्या के पाप से उऋण होने के लिए पांडव केदारनाथ धाम को गमन कर रहे थे तब इसी मार्ग पर बहने वाली पतित पावनी मंदाकिनी नदी पांडवों की परीक्षा लेने के लिए अपने उग्र रूप में आ गयी। भयंकर गर्जना को देखकर पांडवों चिंतित हो गए। तब पांडव नदी पार करने के बारे में विचार करने लगे। नदी के उग्र स्वर तथा वेग को देखकर महाबलि भीम को गुस्सा आ गया और उन्होंने भयंकर गर्जना के साथ ही अपना रौद्र रूप रख दिया। बताया जाता है कि विशालकाय भीम ने द्रोपदी सहित चारों भाइयों को अपने कंधे में बिठाकर नदी के दोनों ओर स्थित विशाल शिलाखंडों पर पैर टिकाकर नदी को पार कर लिया। इस अदम्य साहस को देखकर नदी ने सुंदर स्री का रूप लेकर पांडवों के पैरों में गिरकर उनसे आशीर्वाद लिया। तत्पश्चात अपने पूर्व वेग में बहने लगी। नदी के दूसरी ओर महाबली भीम ने अपना आकार सूक्ष्म कर चार भाइयों तथा द्रोपदी को सुरक्षित धरती पर उतारा। इसी मार्ग से होते हुए पांडव मोक्ष को प्राप्त करने के लिए केदारनाथ स्थित स्वर्गारोहणी में पहुंच गए। माना जाता है कि तब से लेकर आज तक लगभग दो हजार वर्ष गुजरने के बाद भी दोनों शिलाखंड अपनी जगह पर स्थापित हैं। अंकित महाबलि भीम के पैरों के निशान को देखने के लिए कुछ लोग अवश्य ही इस पैदलमार्ग का रुख करके नतमस्तक होते हैं।

D.S.Mehta

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ADI BADRI
« Reply #65 on: August 09, 2011, 08:37:44 AM »
 
  ADI BADRI

Another pilgrimage centre of local importance is this group of 16 temples enroute to Ranikhet and close to the confulunce at Karanprayag.The main temple is dedicated to Narayan and has a raised platform in the pyramidical form.Within the temple,a black stone idol is installed.It is believed that these temples,dating to the Gupta age,were sanctioned by Adi Shankaracharya who wanted to spread the tenest of Hinduism to every remote corner of the country.






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कुलदेवता हैं गुरु गो¨वद सिंह

देहरादून भगवान को जिस रूप में भजो, उसी रूप में उनका साक्षात्कार हो जाता है। उत्तराखंड का जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र इसका जीता जागता उदाहरण है।
न गुरुद्वारा, न ग्रंथी, लेकिन इस इलाके के 17वीं सदी के पौराणिक मंदिर में ढोल-नगाड़ों की थाप पर गुरु गोविंद सिंह महाराज की पूजा-अर्चना होती है। संभवत: यह देश का अकेला क्षेत्र होगा जहां सिखों के दसवें गुरु कुलदेवता की तरह पूजे जाते हैं। अपनी अलग संस्कृति के लिए प्रसिद्ध जौनसार बावर की धार्मिक मान्यताओं में भी ऐसा अनूठापन है, जो शायद ही कहीं देखने को मिलता हो
। पूरे देश में शिव, विष्णु, श्रीराम, श्रीकृष्ण को इष्ट माना जाता है, लेकिन जौनसार के 359 गांव और डेढ़ सौ मजरों के करीब डेढ़ लाख से ज्यादा लोग महासू, परशुराम, विजट, शिलगुर, चूड़ू आदि को इष्टदेव के रूप में पूजते हैं, जबकि कालसी के अतलेऊ गांव में गुरु गोविंद सिंह महाराज ही कुलदेवता हैं।
 मंदिर के वजीर सुपाराम राणा व भंडारी राय सिंह के अनुसार 16वीं सदी में जब लोगों की संतानों की अकाल मृत्यु की घटनाएं बढ़ गईं और सुख-समृद्धि को ग्रहण लग गया, तब गुरु महाराज की कृपा से ही गांव में सुख-समृद्धि लौटी। उसके बाद उनकी सुबह-शाम पूजा शुरू हुई। 11 पीढि़यों से गांव में गुरु महाराज की सेवा का क्रम अनवरत चला आ रहा है। गुरु महाराज के देवमाली (पुजारी) लोगों के दुख-दर्द दूर करने को प्रश्न लगाते हैं और गुरमुखी में ही जवाब देकर निदान भी करते हैं।
स्थानीय पाराचिनार बिरादरी के अनिल चानना के मुताबिक हर परिवार का पहला बेटा गुरु महाराज का भक्त होता है और केश नहीं कटवाता। अतलेऊ मंदिर में गुरु महाराज की पूजा-अर्चना अनूठी धार्मिक परंपरा का अकेला उदाहरण है। अतलेऊ मंदिर के पुजारी मातबर सिंह राणा बताते हैं दसवें साल में अमृतसर की पदयात्रा कर महाराज श्री के शाही स्नान की परंपरा है। गुरु महाराज का पिछला शाही स्नान 2007 में अमृतसर में कराया गया था। इसके अलावा प्रत्येक तीसरे वर्ष पौंटा साहिब व आठवें वर्ष हेमकुंड साहिब के दर्शन करने जाते हैं। रोजाना दो वक्त की पूजा होती है ताकि लोग अपने कुलदेवता के दर्शन कर आशीर्वाद ले सकें

Source - http://www.pressnote.in/religious-news_137275.html

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देवता व ऋषियों का भी होता है श्राद्ध
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श्राद्ध पक्ष में केवल पितरों का ही नहीं, बल्कि देवताओं एवं ऋषियों का भी श्राद्ध कर्म किया जाता है। देवताओं को पूरब की ओर मुंह करके जल देने का विधान है। श्राद्ध पक्ष में इन दिनों अधिकांश श्रद्धालु श्राद्ध कर्म करने की विधियों की जानकारी के लिए पंडितों के यहां जा रहे हैं। साथ ही श्राद्ध कर्म के बारे में जानकारी हासिल कर रहे हैं। पंडित जगदीश प्रसाद पैन्यूली ने बताया कि अभी तक लोगों में यह भ्रांति है कि केवल पितरों का ही श्राद्ध कर्म किया जाता है, जबकि ऐसा नहीं है। उन्होंने बताया कि देवताओं व ऋषियों का भी श्राद्ध कर्म किया जाता है।


देवताओं को पूरब की ओर मुंह करके हथेली को सीधा कर जल देने का विधान है, जबकि ऋषियों के लिए उत्तर दिशा की ओर मुंह करके जल देने का विधान है। पितरों को दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके जल दिए जाने का विधान है । उन्होंने बताया कि पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोजन में बैंगन, प्याज, लहसुन, मसूर, उड़द, बासी भोजन व जला भोजन निषेध है। तीर्थो में श्राद्ध का विशेष महत्व रुड़की:  तीर्थो में श्राद्ध का विशेष महत्व है। कोई व्यक्ति पवित्र तीर्थ, सरोवर अथवा जलाशय में जाकर पितृ तर्पण श्राद्ध आदि करता है तो उसे घर में किए गए श्राद्ध की अपेक्षा हजार गुना ज्यादा फल प्राप्त होता है।

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शस्त्रों का पूजन कर प्राण प्रतिष्ठा की






 गुप्तकाशी : केदारघाटी के ग्राम सभा भैंसारी में पांड़वों के नव निर्मित अस्त्र-शस्त्रों एवं न्योजा निशाणों की पूजा-अर्चना कर उनमें प्राण प्रतिष्ठा की गई। इस अवसर पर कई संख्या में ग्रामीण उपस्थित थे।

ग्राम सभा भैंसारी के पुराने शस्त्रों के स्थान पर पांडवों के नए अस्त्र-शस्त्रों व न्योजा निशाणों की पूजा अर्चना कर उनमें प्राण प्रतिष्ठा की गई। इस दौरान ग्रामीणों व पांडवों के पश्वाओं ने शुक्रवार सुबह पूजा अर्चना कर पांडवों का आह्वान किया गया। जिसमें ढोल नगाड़ों की थाप पर सर्वप्रथम माता कुंती, युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव सहित हनुमान जी के पश्वाओं ने पारंपरिक नृत्य किया।
दैवीय कार्यसमिति के अध्यक्ष राजेन्द्र सिंह बिष्ट एवं कलम सिंह राणा ने बताया कि प्राचीन काल से ही पांडव नृत्य के आयोजन से पहले पुराने बाणों के स्थान पर नए शस्त्रों का निर्माण किया जाता है


और उनमें प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। इस अवसर पर मुख्य सहयोगी यशपाल सिंह रावत, योगेन्द्र सिंह बिष्ट, विशेश्वरी देवी, राजेश्वरी देवी, कृष्णा राणा, रणवीर सिंह, सुदामा पंवार, शिशुपाल सिंह, विजया देवी, दीपक आदि उपस्थित थे।
   
 


Source dainik jagran

विनोद सिंह गढ़िया

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हरु के मंदिर में नहीं बजते ढोल
« Reply #69 on: November 14, 2011, 05:07:20 AM »
हरु के मंदिर में नहीं बजते ढोल

मंदिर में बलिदान नहीं होता है


बागेश्वर। जिला मुख्यालय से 120 किमी दूर भंडारीगांव के बगराती तोक स्थित बाल हरु देवता क्षेत्र के लोगों की परम आस्था का मंदिर है। मंदिरों में अक्सर ढोल-नगाड़े तथा भजन-कीर्तन को वाद्य यंत्र भी बजते हैं, लेकिन यह एक ऐसा अनोखा मंदिर है जहां न तो ढोल-नगाड़े बजते हैं और न ही वहां भजन-कीर्तन को वाद्य यंत्र ही बजते हैं। मंदिर का पुजारी भी अविवाहित ही होता है। मंदिर में पशुओं का बलिदान नहीं होता।एक बार बाल हरु ने वैष्णव पद पाने को साढ़े पांच हजार वर्ष पहले नेपाल के जंगल में भगवान विष्णु की कठोर तपस्या की। बाल्यावस्था में की गई कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें वैष्णव पद से विभूषित कर दिया। तपस्या के बाद वह सरयू वार नहीं आए।  उनका पुजारी भी ब्रह्मचारी ही होता है। वह पीत वस्त्र ही पहनते हैं। मंदिर में न तो ढोल नगाड़े बजते हैं और न ही बलिदान ही होता है। बाल हरु को लाल पीठ्या की जगह पीला चंदन चढ़ता है। मंदिर में भादो महीने के सातूं-आठूं का मेला लगता है। सिलकानी कपकोट के ज्योतिषाचार्य पंडित चंद्र प्रकाश जोशी ने बताया कि देवी भागवत तथा कल्याण पत्रिका के देवतांक के अनुसार ब्रह्मा जी के बांई आंख के भौंह से एक रोते हुए बालक का जन्म हुआ। उसका नाम रुद्र रखा गया। ब्रह्मा जी में जैसे उत्पत्ति तथा भगवान विष्णु में पालन की क्षमता थी वैसे ही भगवान रुद्र में तामसी क्षति को हरने की क्षमता थी। इसी शक्ति से उनका नाम हरु पड़ा। पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु ने अपने को एक अहम बहुस्यामि कहा है। बाल हरु ने भगवान विष्णु की ऐसी कठिन तपस्या की कि उन्हें वैष्णव पद प्राप्त हो गया। इसीलिए उन्हें उन्हें लाल पीठ्या की जगह पीला चंदन, लाल फूल की जगह पीला फूल ही चढ़ता है। मंदिर के पुजारी लोकेश जोशी बताते हैं कि बाल हरू सरल देवता हैं। नियमानुसार पूजा करने वालों की सभी मनोकामना पूरी कर देते हैं। गांव के बुजुर्ग डा. श्याम सिंह डसीला ने कहा कि उन्होंने अपने जीवन में कभी भी ढोल नगाड़ों बजते देखे और न ही सुने हैं।  ब्यूरोग्रामीण बताते हैं कि ढोल बज गया तो अनिष्ट होने की आशंका बनी रहती है।

श्रोत : अमर उजाला

 

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