नए दौर में लुप्त हो रही है प्राचीन काष्ठ कला
पर्वतीय क्षेत्र के प्राचीन भवनों में दिखने वाली काष्ठ नक्काशी नये दौर में उपेक्षित सी हो गयी है। आधुनिकता व इमारती लकड़ी के अभाव से इस प्राचीन व परम्परागत कला के अस्तित्व संकट के बादल मंडरा रहे हैं। एक दौर था, जब नक्काशीदार भवनों की संख्या बहुतायत थी लेकिन अब यह संख्या अंगुली पर आ गई है। जिससे इस कला का दर्शनीय स्वरूप अब लुप्त सा हो गया है। पर्वतीय क्षेत्र की परम्परागत कलाओं में काष्ठ कला का स्थान भी प्रमुख है। संसाधनों पर प्रतिबंध, मैदानी क्षेत्रों से मकान बनाने की स्पद्र्धा व महंगाई की मार के कारण यह परम्परागत शैली अब लुप्त होने लगी है। पहले पर्वतीय क्षेत्र का शायद ही कोई गांव या शहर होगा, जहां भवन काष्ठ नक्काशी से सीधे साक्षात्कार न कराते हों लेकिन आज ऐसे भवन ढूंढने पर मिलते हैं। इसका एक कारण आधुनिकता की चकाचौंध भी है। भवनों में काष्ठ नक्काशी से परिपूर्ण प्रवेश द्वार व खिड़कियां भवन को सुन्दर तो बनाते ही है, साथ ही पहले माना जाता था कि नक्काशीदार भवन उसके स्वामी के सम्पन्नता का संकेत देते थे। इमारती लकड़ी की उपलब्ध नहीं हो पाने के कारण भी काष्ठ कला की प्राचीन परम्परा खो रही है। मैदानी क्षेत्रों में भवन का सौन्दर्य निखारने के लिए आज पत्थर, कंकरीट व सीमेण्ट का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन पहले भवन की सुन्दरता लकड़ी पर नक्काशी से होता रहा है। नक्काशी के लिए देवदार व तुन की इमारती लकड़ी सस्ती व टिकाऊ मानी जाती थी। यह लकड़ी लोगों को अपनी ही नाप भूमि में आसानी से मिलती थी। वन संरक्षण अधिनियम के नियमों से आज इमारती लकड़ी मिलना कठिन हो गया है। फलस्वरूप काष्ठ कला की परम्परा मकानों से दूर होती चली गयी। इसका पेशेवर कारीगरों पर भी विपरीत असर पड़ा बल्कि इस कारीगरी को छोड़ना उनकी मजबूरी सी हो गयी है। अब नक्काशीदार भवन बनाना तो दूर ऐसे पुराने भवनों को तक कायम रखना तक कठिन हो गया है। अब नये फैशन में साल, शीशम की लकड़ी व लोहे के ग्रिल इत्यादि का दौर चल रहा है। जिससे भवनों में पर्वतीय क्षेत्र का शिल्प व सौन्दर्य गायब होने लगा है। संस्कृति व कला प्रेमी परम्परागत कलाओं के लुप्त होने से चिंतित हैं बल्कि कुछ संस्कृति व कला प्रेमी शासन व संस्कृति विभाग से परम्परागत काष्ठ कला के पुराने भवनों के संरक्षण पर जोर दे रहे है।