पक्षी और पहाड़ी लोगों का पौराणिक काल से ही एक पारस्परिक समबन्ध रहा है। हमारे लोकगीतों और लोककथाओं में विशेष रुप से पक्षियों का उल्लेख रहा है, बच्चे की लोरी में भी पहली बार उसे पक्षी (घूघुती) से ही परिचित कराया जाता है, किसी विरहण को जब परदेश में गये पति की याद आये या अपने मायके की, तो वह भी अपनी उदासी को दूर करने के लिये पक्षियों से ही अनुरोध करती है कि मेरा सन्देशा उन तक पहुंचा दे। गौरेया तो पक्षी न होकर घर की एक छोटी सदस्य ही होती थी, बचपन में गौरेया फुदक-फुदक कर किचन तक भी चली जाती थी, किसी को उससे परेशानी नहीं थी, गौंतड़ा का घोंसला बनाना घर के लिये शुभ माना जाता था, कौवे की कांव-कांव घर में किसी मेहमान के आने का सन्देश देती थी।
तब हमारे वास्तुशाष्त्र में भी इन पक्षियों के घोंसले बनाने का स्थान तय हुआ करता था, छत और दीवार के बीच में लकड़ी के मोखले बनाये जाते थे, लेकिन समय बदला सीमेन्टेड मकान में रहने की परम्परा आ जन्मी, उन मकानों में पक्षियों ने अपना ठिकाना ढूढा, लेकिन उन्हें स्थान नहीं मिला, फिर घर के आस-पास पेड़ और झाड़ी लगाना भी बन्द हो गया, शहर का प्रतिरुप बनने की होड़ में गांव, गांव भी नही रह पाया और शहर भी नहीं बन पाया। इसके बाद विकास गांव-गांव पहुचने लगा, सबसे पहले आई बिजली की लाईनें, इनसे भी पक्षी असहज हुये। फिर गांव-गांव तक सड़क और जीपों की गुराट और उसके धुंये ने भी इनको हमसे दूर किया। उसके बाद घर-घर में डिश टी०वी० की छतरियों ने रेडियेशन शुरु किया और पक्षी गांव से दूर हुये। फिर आया दूरसंचार क्रान्ति का जमाना, जिसमें पहाड़ों में हाई फ्रीक्वेंसी के मोबाइल टावर लगे। शहरों में तो इनकी फिक्स फ्रीक्वेंसी होती है। लेकिन पहाड़ों में २०-३० गांवों के लिये एक ही मोबाइल टावर लगाया जा रहा है, इससे सबसे ज्यादा छोटे पक्षियों पर पड़ा, इसीलिये आज पहाड़ों में गौरेया, सिन्टोले, कलचुड़ि, सुवा (तोते), घुघुती जैसे पक्षी कम होते जा रहे हैं। ऐसा भी कहा जा सकता है कि हमारे विकास ने ही इनका विनाश किया है, तो अतिश्योक्ति न होगी।