गिद्द भी गायब हो गए हैं उत्तराखंड से
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जब हमें अपने गाँव-देहात या शहर के नुक्कड़ों पर कुदरत के सफाईकर्मी कहे जाने वाले गिद्धों के दर्शन आसानी से हो जाते थे। आज इस विशाल पक्षी के गायब हो जाने से पर्यावरण पर गंभीर खतरा मँडरा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक अस्सी के दशक में भारत में साढे़ आठ करोड़ गिद्ध थे।
मगर आज उनकी संख्या महज 4,000 ही रह गई है। हालांकि सुकून की बात यह है कि कॉर्बेट नेशनल पार्क से सटे जंगलों में इन दिनों गिद्धों के झुण्ड दिखाई दे रहे हैं। मगर वन विभाग और संबधित एजेंसियाँ सचेत न होने से उम्मीद की यह किरण भी बुझ सकती है। वजह, गिद्धों के सफाए का कारण बनी डाइक्लोफिनेक नाम की दवा की आसपास के क्षेत्रों में धड़ल्ले से हो रही बिक्री है।
भारत में गिद्धों की कुल 9 प्रजातियों में से उत्तराखण्ड में आठ प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें हिमालयन ग्रिफन, व्हाइट बेक्ड, सिलैन्डर ब्ल्डि, रैड हैडैड, इजिप्शियन, सिनेरियस, लामरगियर आदि मुख्य हैं। ये पक्षी मांसाहारी हैं और मृत सड़े-गले जानवरों को खाकर गुजारा करते हैं।
मगर जानवरों को दी जाने वाली डाइक्लोफिनेक दवा के बुरे असर से गिद्धों का खात्मा होता गया है। इसके चलते लौंग बिल्ड, व्हाइट बेक्ड और सिलैन्डर बिल्ड प्रजाति के 99.9 प्रतिशत गिद्धों का सफाया हो चुका है।
वर्ष 2004 में गिद्धों के सफाये की वजह के रूप में डाइक्लोफिनेक के सामने आने के बाद 2006 में जानवरों के इस्तेमाल के लिये इसकी बिक्री और प्रयोग पर पाबंदी लगा दी गयी। मगर इंसानों के लिए इस दर्द निवारक का निर्माण और बिक्री जारी है। दुकानों पर आसानी से उपलब्ध यही डाइक्लोफिनेक गिद्धों के लिये तबाही ला सकता है।
क्योंकि जानकारों के मुताबिक 760 में से एक डाइक्लोफिनेक उपचारित पशु ही वर्तमान गिद्धों के सफाये को काफी है। हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि गाँवों में बीमार पशुओं को इंसानों वाले डाइक्लोफिनेक से उपचारित किया जा रहा हैं।