Dwarika Pande
January 28
पहाड़ से पलायन का दंश
दिन दिन खजाना का भार बोकना ले
शिव शिव चुलि में बाल नैं एक कैका
तदपि मुलुक तेरो छाडि नैं कोई भाजा
इति बदति गुमानी, धन्य गोर्खालि राजा II
कुमाउनी बोली के आदि कवि ; “पंडित लोक रत्न पन्त”, जो कि “गुमानी” उपनाम से कवितायें लिखते थे; की एक कविता का “अंश” बरवश याद आ पड़ा, जो मुझे पहाड़ों में आज हो रहे पलायन पर अंगुलियाँ चलाने को मजबूर कर गया. कबीर दास जी ने कभी कहा था कि “मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ”. सायद उन्होंने भी लैपटॉप पर ही अंगुलियाँ चला कर इतना बड़ा साहित्य लिख डाला होगा, खैर. मैं भी इसी विधा से, बिना “मसि”, “कागद”, छुवे और बिना हाथ में कलम “गहे”, आपको पढ़ने या न पढ़ने का विकल्प देते हुए, जबरदस्ती कुछ लिख मारने को उद्यत हुवा हूँ.
पहले तो मैं उपरोक्त कविता का सन्दर्भ सहित अर्थ बता दूं. जब “डोटी” (नेपाल) के गोर्खा राजा ने कुमाऊं,गढ़वाल, सिरमौर, और कांगड़ा राज्यों पर आक्रमण कर के लूटपाट की तो उसने लूटे हुवे खजाने को सिर पर ढोने के लिए इन्ही राज्यों की प्रजा का “बेगार” प्रथा के अंतर्गत प्रयोग किया. प्रजा खजाने को ढो ढो कर बेहाल थी. इसी घटना का वर्णन “गुमानी” जी ने इस कविता के माध्यम से किया. वे कहते हैं कि “ रोज रोज खजाने का भार ढो ढो कर किसी भी आदमी के सिर में एक बाल भी शेष नहीं रह गया था, फिर भी पहाड़ के बाशिंदे इस देश को छोड़ कर नहीं भागे. हे गोर्खा राजा तू धन्य है”
जब इतने सारे जुल्म और अत्याचार सह कर भी लोगों ने पलायन नहीं किया तो जो आज पलायन हो रहा है, उसके पीछे वह कौन सा अत्याचार उत्तरदायी है जो आज गाँव के गाँव खाली हो गए हैं?
सबसे पहले हमें यह देखना पड़ेगा कि उस समय ऐसा कौन सा लालच था जो वहाँ के लोगों को पलायन से रोके हुवे था? वह कौन सी सुविधा थी जो पहाड़ वाशियों को अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती? इसका उत्तर भी “गुमानी” जी ने दिया है:-
“ केला निम्बू अखोड़ दाड़िम दड़ा, नारिंग आदो दही,
खासो भात जमालि को कलकलो, भूना गडेरी गाबा;
च्यूड़ा सद्य उत्योल दूध बाकलो, घ्यू गाय को दाणोंदार,
खाणीं सुन्दर मोंणींयाँ घपढूवा, गंगावली रौणींयाँ II”
पहाड़ में पर्याप्त मात्रा में जीवन यापन के लिए शुद्ध खाना, रहने के लिए मकान बनाने हेतु निर्माण सामग्री का आसानी से ओर बिना मूल्य उपलब्ध होना, पहाड़ की शुद्ध हवा जो कि उनके स्वास्थ्य की रक्षा करती थी, पहाड़ के परम्परागत रोजगार का सम्यक वितरण था. ब्राह्मणों द्वारा पठन पाठन और पूजा पाठ, ज्योतिष, औषधि सम्बन्धी कार्य; क्षत्रियों द्वारा कृषि कार्य; वैश्य समाज, जो कि अल्प मात्रा में था, द्वारा व्यापार; और शिल्पकारों, जिन्हें आज की धर्म निरपेक्ष सरकारें दलित, अनुसूचित जाति, शोषित, अविकशित और भी न जाने किन किन नामों से पुकारती हैं; भवन निर्माण, दरजी का काम,चर्मकारी, लौहकारी, कुम्हार का काम, तेल निकालने का काम, ताम्रकारी, आदि आदि थे. मैला ढोने की परम्परा पहाड़ों में कभी नहीं थी.इन्हीं सब कारणों से वहाँ के लोगों ने पलायन का विकल्प नहीं चुना और आई हुयी विपदा को अस्थाई मान कर धैर्य धारण कर के वहीं रहने का निश्चय किया. रोजगार यद्यपि अधिकतर पुस्तैनी थे, फिर भी विकल्प और अपवाद मौजूद थे. उस काल में भी कई क्षत्रिय और शिल्पकार अध्यापन का कार्य करते थे, कई ब्राह्मण खेती करते थे, और शिल्प का काम भी अच्छे से करते थे. समाज में अत्यंत अमीर या अत्यंत गरीब कोई नहीं था. सब की गुजर बसर आसानी से हो रही थी. समाज में आपसी भाईचारा उत्कृष्ट कोटि का था. यदि किसी व्यक्ति को नीच दृष्टि से देखा जाता था तो वह उस की जाति के कारण नहीं बल्कि उस की मूर्खता या अकर्मण्यता के कारण था. मूर्ख ब्राह्मण कभी सम्मान का पात्र नहीं रहा, उसी प्रकार उच्च कोटि का शिल्पकार सदा सम्मान का पात्र रहा. आज भी पहाड़ों के 50-75 साल पुराने मकानों में की गयी नक्काशी देखी जा सकती है. वैसी नक्काशी करने की कला अब किसी के पास नहीं है. बल्कि यों कहें कि लुप्त हो गयी है. रही सही कसर 2 रुपये किलो गेहूं और मनरेगा ने पूरी कर दी है.
अब जहां तक खेती की बात है, कोई व्यक्ति चाह कर भी खेती नहीं कर सकता. क्योंकि उसकी मेहनत से उगाई गई फसल और फल फूलों को बन्दर, सूअर, साही, लंगूर, खा जाते हैं. मवेशियों को बाघ खा जाते हैं, मकान बनाने को आप न पत्थर निकाल सकते, न आपको इमारती लकड़ी मिलेगी. अपने खेत में लगाए, पाले पोसे पेड़ को आप काट नहीं सकते. मवेशियों के लिए पुस्तैनी जंगलों से चारा नहीं ले सकते. आप खेती और फलों को नुकसान पहुँचाने वाले जंगली जानवरों को मारना तो दूर एक पत्थर तक नहीं मार सकते. जिन्दा रहने के लिए आवश्यक अनाज और मकान से तो पहाड़ियों को महरूम कर ही दिया गया है. बल्कि यों कहिये की सरकारी कानूनों ने कस कर आपका गला दबाया हुवा है. पहाड़ में फलों की पैदावार के विपणन के लिए या उसकी प्रोसेसिंग की लिए कोई उपाय करने के विषय में राजनैतिक भाग्य विधाताओं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा. हाँ सडकों का जाल अवस्य कुछ हद तक जरूर बिछाया है, वह भी इसलिए की टेंडर से मोटी कमाई जो हो रही है. ले दे कर पहाड़ वासियों के लिए रोजगार का एकमात्र साधन जीप चलाना रह गया है, वह भी कितना चलेगा, हर बेरोजगार लड़का लोन ले कर जीप खड़ी कर ले रहा है और फिर माँ के जेवर बेच कर क़िस्त भर रहा है.
पांच से बीस वर्ष तक मनुष्य को शिक्षा चाहिए, उसके लिए अच्छे स्कूल नहीं हैं. बीस से साठ वर्ष तक आदमी को रोजगार चाहिए, उसके लिए वहाँ कोई ब्यवस्था नहीं है, साठ से ऊपर के आदमी को चुस्त स्वास्थ्य ब्यवस्था चाहिए, उसकी तो दूर दूर तक कोई संभावना ही नहीं है. अब वहां किस उम्र का आदमी रहे? क्या शून्य से पांच वर्ष का? उसको भी माता पिता चाहिए, वे तो वहां रह नहीं सकते.
हमारे “उच्च शिक्षित”, बल्कि यों कहिये “भयंकर शिक्षित” नेताओं की तीक्ष्ण बुद्धि में इतनी सी बात नहीं आ पा रही है कि पलायन रोकने के लिए किसी “परमाणु शक्ति” या “नासा” की आवश्यकता नहीं है, केवल इच्छा शक्ति की आवश्यकता है. उपाय तो मेरे जैसा अल्प शिक्षित और मोटी बुद्धि वाला भी बता सकता है, किन्तु उन पर अमल तो उत्तराखंड की सरकार ही कर सकती है. जो करेगी नहीं. क्यों कि आधे से ज्यादा एमएलए तो उनको देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर से मिल जाते हैं. थोड़ी बहुत पहाड़ियों की जरूरत पड गयी तो दस पंद्रह लाख में मिल ही जाते हैं.
पहाड़ से पलायन केवल आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से ही चिंता का विषय नहीं है, बल्कि सामरिक दृष्टि से और देश की सुरक्षा के लिए भी महत्वपूर्ण है. उत्तराखंड के चार जिले, उत्तरकाशी, चमोली, पिथोरागढ़ और चम्पावत, अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगते हैं. ज़रा सोचिये की आने वाले आठ दस साल में यदि वहाँ से लोगों का पूर्णतया पलायन हो गया तो क्या हमारी सीमाएं सुरक्षित रहेंगी? इस विषय पर आईटीबीपी के एक भूतपूर्व महानिदेशक पंडित गौतम कौल ने सन 2001 में एक विस्तृत रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी थी, लेकिन वह किसी डस्ट बिन में गयी होगी, या अब तक जलाई जा चुकी होगी.
मेरी मंद बुद्धि में कुछ बहुत ही सूक्ष्म और कम खर्चीले उपाय आते हैं. जिन्हें मैं नीचे दे रहा हूँ.
१. पहाड़ में खेती और फलों को नुकसान पहुंचाने वाले जंगली जानवरों को मारने की अनुमति हो.
२. खेतों की चकबंदी कर दी जाय.
३. फल प्रसंस्करण के लिए छोटे छोटे उद्योग लगाने के लिए स्थानीय युवकों को सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाय. उनको ये उद्योग लगाने के लिए प्रशिक्षण दिया जाय.
४. सरकारी शिक्षकों और चिकित्सकों को पर्वतीय जिलों में अपनी सेवाकाल के प्रथम बीस वर्ष बिताना अनिवार्य कर दिया जाय. साथ ही उन्हें दुर्गम स्थानों में सेवा देने के लिए दो गुना वेतन दिया जाय.
५. दुग्ध पदार्थों के प्रसंस्करण के लिए भी लघु उद्योग को प्रोत्साहन दिया जाय. ताकि लोग अधिक से अधिक पशुपालन अपना सकें.
६. वहाँ के निवाशियों को उनके जंगलों में पर्याप्त अधिकार दिए जाएँ.
इन सब उपायों को करने में एक ही दिक्कत है कि इनमें से एक भी उपाय ऐसा नहीं है जिससे नेताओं को कमीसन मिल पायेगा. मुफ्त लेपटॉप, घी, मोबाइल फोन, और खैरात बांटने की अपेक्षा बहुत ही कम खर्च में यह काम हो जायेंगे.
यदि आपको ये उपाय अच्छे लगे हों और यदि आप लोगों की राजनैतिक पहुँच है, वे कृपया सभी राजनैतिक दलों के सभी मुख्यमंत्री पद के दावेदारों (अधिक से अधिक बीस पच्चीस ही तो होंगे), तक मेरी यह विनती पहुंचाने की कृपा करें.
सादर
आपका मित्र .... जनार्दन.
दिनांक 27 जनवरी 2017.
Shri Janardan Pant ji
आपका अनुमोदन
बहुत अच्छा लिखा
"उत्तराखंन्डी"
में शेयर नहीं हो पा रहा ज़्यादा लोग जाने सहयोग दें सोचेंगें इसलिए इधर भी कट पेस्ट कर रहा हूँ ।
सुन्दर सकारात्मक सोचकर लेख के लिए
आपका आभार ।