जिस तरह से हिन्दी फिल्म जगत में एक दौर ऐसा आया जब सिर्फ प्रेम कहानियों तक ही फिल्में सिमट गई। उसके बाद कुछ फिल्मकारों ने अभिनव प्रयोग किये और आज हिन्दी सिनेमा कुछ हद तक पटरी पर आता दिख रहा है।
कुछ ऐसा ही उत्तराखण्डी गीत-संगीत के साथ भी हुआ, इस बीच में कितने एलबम आये और गये, कुछ एलबम तो ऐसे भी आये जिन्हें परिवार के साथ देखना मुश्किल हो गये। अभी भी कई ऐसे एलबम ऐसे आ रहे हैं, जिनमें नायक को नायिका किसी फिल्मी हीरोइन जैसी दिखती है और वह उसके साथ आधुनिक परिधान पहने किसी नदी किनारे नाच रहा होता है।
ऐसे समय में रजनीकान्त जी ने एक नई शुरुआत की है, इसके लिये मैं हृदय से उनका आभारी हूं। क्योंकि कोई भी लोक संगीत उस संस्कृति का परिचय होता है और फूहड़ता हमारी संस्कृति नहीं है। लोक वाद्यों का प्रयोग, मनमोहक लोकेशन, कम लिपे-पुते कलाकार, आम व्यक्ति की सहभागिता कुल मिलाकर टिकुलिया मामा को १०० में से ९० नम्बर मैं देता हूं।
रजनीकान्त जी से भी अनुरोध करुंगा कि जो लौ आपने प्रज्वलित की है, उसे जलाये रखें, बाजारीकरण की अंधी दौड़ में अपने सामर्थ्य और ऊर्जा को बहने न दें। ऐसे पुनीत कार्य में हम उनके साथ हैं।