Author Topic: Share Informative Articles Here - सूचनाप्रद लेख  (Read 136231 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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« Reply #40 on: November 22, 2007, 04:33:48 PM »

Vedika JI,

Very good information you have given.

Thanx and (1 karma to you).



source : http://www.webindia123.com/uttaranchal/land/distri.htm

Uttaranchali Nauni

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« Reply #41 on: November 22, 2007, 05:03:09 PM »
Thanks..mehta ji..app aise hi karma ..dete rahiye ,,,,
aur hum aise hi karma karte rahenge   ;D  :P

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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« Reply #42 on: November 24, 2007, 10:25:57 AM »

For hindi on forum,

write your text on this ..
http://www.google.com/transliterate/indic/

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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« Reply #43 on: November 24, 2007, 01:14:44 PM »
 हरी वादियों का संगीतकार

अस्सी के दशक की शुरुआत से ही एक अकेले व्यक्ति के शांत प्रयासों ने ऐसे ग्रामीण आंदोलन की नींव रखी जिसने उत्तराखंड की बंजर पहाड़ियों को फिर से हराभरा कर दिया। सच्चिदानंद भारती की असाधारण उपलब्धियों को सामने लाने का प्रयास किया संजय दुबे ने। 

शायद ही कुछ ऐसा हो जो संच्चिदानंद भारती को उफरें खाल के बाकी ग्रामीणों से अलग करता हो। ये तो जब वो हमारा स्वागत गुलाब के फूल से करने के साथ हमें अपने गले लगाते हैं तब हमें एहसास होता है कि इसी असाधारण रूप से साधारण व्यक्ति के महान कृत्य हमें उफरें खाल खींच कर लाये हैं।

औपचारिकताओं से निबटकर जब हम चारो तरफ फ़ैली पर्वत श्रृंखलाओं पर नज़र दौडाते है तो हमें भारती जी की अद्भुत उपलब्धियों की गुरुता का एहसास हो जाता है। दरअसल भारती ने एक समय नग्न हो चुकी उत्तराखंड के पौड़ी ज़िले में स्थित दूधातोली पर्वत श्रृंखला के एक बड़े हिस्से को राज्य के सबसे बढिया और घने जंगलों में तब्दील कर दिया है। उनकी कोशिशों की बदौलत सैंकड़ो पेड़ सरकारी कुल्हाड़ी के शिकार होने से बच गए- ये छोटी सफलता एक बड़े परिवर्तन की नींव बनी। महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस घटना ने उफरें खाल और इसके आसपास के लोगों में अपने अधिकारों की समझ और एकता की भावना पैदा कर दी।   

साल 1960 के बाद अनियंत्रित औद्योगिकरण ने पहाड़ों के एक लंबे-चौड़े हिस्से को प्राकृतिक संपदा का गोदाम बना डाला। एक ऐसा गोदाम जिसमें मैदान की ज़रूरत के सामान रखे होते थे। 1970 के दशक में वन्य संपदा के विनाश को रोकने के लिए सबसे मशहूर संघर्ष था चिपको आंदोलन, इसकी शुरुआत चमोली ज़िले के गोपेश्वर नाम की जगह से हुई। भारती उस समय गोपेश्वर के कॉलेज में पढ़ रहे थे और इस आंदोलन में उन्होंने भी सक्रिय भुमिका निभाई। भारती जी ने पेड़ों के संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए कॉलेज में एक समूह भी बनाया जिसका नाम था 'डालियों का दागड़िया' (पेड़ों के मित्र)। पढ़ाई खत्म करके जब वो उफरें खाल पहुंचे तो वहां भी उनका सामना विनाश की कुछ ऐसी ही परिस्थितियों से हुआ। भारती बताते हैं, "उसी दौरान वन विभाग ने डेरा गांव के समीप लगे पेड़ों का एक बड़ा हिस्सा काटने का फैसला किया। चिपको आंदोलन से जुड़ा होने की वजह से मुझे पता था कि इस परिस्थिति से कैसे निपटना है, मैंने गांव वालो को साथ लेकर अभियान शुरू कर दिया।" उनकी कोशिशों की बदौलत सैंकड़ो पेड़ सरकारी कुल्हाड़ी के शिकार होने से बच गए। बाद में ये छोटी सी सफलता एक बड़े परिवर्तन की नींव बनी। महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस घटना ने उफरें खाल और इसके आसपास के लोगों में अपने अधिकारों को लेकर समझ और एकता की भावना पैदा कर दी।

पहाड़ों के बुजुर्ग याद करते हैं कि किस तरह से एक समय में यहां के वन, इनमें रहने वाले जंगली जानवरों और इस पर ईंधन और भोजन के लिए आश्रित गाँव वालों, दोनों के लिए पर्याप्त हुआ करते थे। लेकिन, जैसे-जैसे जंगलो की कटाई अनियंत्रित होती गई, गाँव वालो को दोहरी मार झेलनी पड़ गई-- एक तरफ़ तो उनके लिए ज़रूरी संसाधनों का अकाल पड़ने लगा, वहीं दूसरी ओर जंगली जानवर भी सिकुड़ते वनों के चलते अपनी ज़रूरतें पूरी न होने से इंसानी रिहाइशों में सेंध लगाने लगे थे। लेकिन भारती की सलाह पर पास के डेरा गांव के लोग इन जानवरों को मारने की बजाय अपने घरों और खेतों के चारो तरफ चारदीवारियां खड़ी करने लगे। 1980 में बननी शुरू हुई दीवार के लिए सिर्फ डेरा गांव के ही नहीं बल्कि दूसरे गांवो के लोगों ने भी आर्थिक सहयोग दिया। आज 9 किमी लंबी इस दीवार के प्रयोग को और जगहों पर भी लागू किया जा रहा है। इसी दौरान भारती ने एक स्थानीय स्कूल में अध्यापन का कार्य भी शुरू कर दिया। उनके पुराने साथी और पेशे से डॉक्टर, दिनेश ने बताया कि ये उनकी सफलता के सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक था। क्योंकि ऐसा करने से वो सीधे-सीधे पर्यावरण सरंक्षण के संदेश को नई पीढी तक पहुंचा पाए। 

1970 के अंत तक जंगलों की कटाई इस स्तर पर पहुंच चुकी थी कि इसने सरकारी अमले में भी इससे निपटने के लिए क़दम उठाने की बेचैनी पैदा कर दी। उन्होंने संरक्षित वनों के खाली पड़े भू-भाग पर चीड़ के पेड़ लगाने शुरू कर दिए। भारती के अनुसार ये क़दम खतरनाक साबित हुआ। वो कहते हैं, "चीड़ के जंगलों ने ज़मीन में नमी का स्तर तेज़ी से कम किया और नमी की कमी के साथ चीड़ के पेड़ों की पत्तियों में मौजूद ज्वलनशील पदार्थ ने  जंगल में आग की घटनाओं को भी बढ़ा दिया। इसके अलावा चीड़ की जड़ों में मिट्टी की बेहतर पकड़ के गुण न होने के चलते भू-स्खलन के खतरे भी बढ़ गए।" 1980 में भारती ने एक दूसरा तरीका निकाला। वन विभाग की मदद से उन्होंने स्थानीय पहाड़ी प्रजाति के पौधे--देवदार, बुरांस, बांच आदि--की नर्सरी खोली। ये कोशिश बाद में दूधातोली लोक विकास संस्थान(डीएलवीएस) के रूप में विकसित हुई जो आज पूरे क्षेत्र में स्थानीय पहाड़ी पौधे लगाने के साथ-साथ अपने अपने साथ जुड़े 150 गांवों में सालाना पर्यावरण जागरुकता शिविर का आयोजन भी करता है। डीएलवीएस क्षेत्र की इसी समय भारती गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र के संपर्क में आए, जिन्होंने उन्हें छोटे स्तर की बावड़ियों और पानी के स्रोत तैयार करने के तरीके सुझाए। भारती ने इन सिद्धांतों को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया और पुराने, सूखे पड़े पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया।
महिलाओं के सशक्तिकरण का भी बड़ा ज़रिया बना है--पहाडों में कामकाज के अभाव में ज्यादातर पुरूष मैंदानो की ओर चले जाते है और घर की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर आ जाती है और इन्हें ही संसाधनों के अकाल की मार झेलनी पड़ती है। इनकी सहभागिता बढ़ाने के लिए भारती ने हर गांव में महिला मंगल दल की नींव डाली और उनके सुरक्षित भविष्य की जिम्मेदारी का थोडा सा बोझा उन्ही के कन्धों पर डाल दिया। पहले वृक्षारोपण अभियान के बाद जितने गांवो ने इसमें हिस्सा लिया था उन्होंने एक सामूहिक फैसला लिया कि अगले 10 सालों तक जंगल में सारी प्रतिकूल गतिविधियां रोक दी जाएंगी। महिला मंगल दल के माध्यम से महिलाओं ने जंगलों के रखरखाव और उनमें किसी के अवांछित प्रवेश को रोकने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली।

एक दशक के भीतर ही दूधातोली के लोगों ने अपने खोए हुए जंगलों का एक बड़ा हिस्सा वापस पा लिया। भारती गर्व से बताते हैं कि पिछले 27 सालों के दौरान पूरे जंगल को लगाने में गांव वालों ने बमुश्किल 5-6 लाख रूपए खर्च किए होंगे। शुरुआती नर्सरी स्थापित करने के लिए मिली सहायता के बाद डीएलवीएस ने कभी कोई और सरकारी सहायता नहीं मांगी। इसकी बजाय नर्सरी के पौधों की बिक्री के जरिए इसने अपने कार्यक्रमों के लिए धन का बंदोबस्त ख़ुद ही किया। असल में भारती वन संरक्षण को लेकर सरकारी रवैये की आलोचना करते हैं। उनके मुताबिक, "वन रिज़र्व करने का अर्थ है पहाड़ी लोगों के वन में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगना लेकिन पैसे के लालच में वन अधिकारी ठेकेदारों के साथ मिलकर इन्ही कानूनों का खुले आम उल्लंघन करते हैं।"

1987 में पूरा इलाका भीषण सूखे की चपेट में था। चिंतित डीएलवीएस ने हर पेड़ के पास एक छोटा सा गड्ढा बनाने का फैसला किया ताकि इनमें पानी इकट्ठा हो सके और पेड़ों को जीने के लिए कुछ औऱ समय मिल सके। इसी समय भारती गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र के संपर्क में आए, जिन्होंने उन्हें छोटे स्तर की बावड़ियों और पानी के स्रोत तैयार करने के तरीके सुझाए। भारती ने इन सिद्धांतों को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया और पुराने, सूखे पड़े पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया। इसके अलावा उन्होंने कई नए जलस्रोतों का भी निर्माण किया। नतीजा, छोटे-बड़े लगभग 12 हजार तालाब अब 40 से ज्यादा गांवों की पानी की जरूरत बखूबी पूरी करते हैं। सिमकोली गांव के सतीश चंद्र नौटियाल एक छोटे से कुएं की तरफ इशारा करके बताते हैं कि 2005 में इसे बनाने में भारती ने उनकी सहायता की थी। वो कहते हैं कि आज ये कुआं ही पूरे गांव के आस्तित्व का आधार है।

भारती से विदा लेते वक्त उनके पुराने साथी रहे पोस्टमैन दीनदयाल धोंडियाल और किराना व्यापारी विक्रम नेगी के चेहरे गर्व से चमक रहे थे। नेगी कहते हैं, "जंगलो की कटाई रोकना तो एक छोटा सा क़दम था। असली चुनौती थी पहाड़ों की खत्म हो चुकी सुंदरता को फिर से वापस लाना।"

निस्संदेह भारती और उनके साथियों ने इस चुनौती पर एक चमकदार जीत अर्जित की है।

 http://www.tehelkahindi.com/UjlaaBharat/KhaamoshKranti/195.html

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« Reply #44 on: November 24, 2007, 02:46:16 PM »

Worth to read.

 हरी वादियों का संगीतकार

अस्सी के दशक की शुरुआत से ही एक अकेले व्यक्ति के शांत प्रयासों ने ऐसे ग्रामीण आंदोलन की नींव रखी जिसने उत्तराखंड की बंजर पहाड़ियों को फिर से हराभरा कर दिया। सच्चिदानंद भारती की असाधारण उपलब्धियों को सामने लाने का प्रयास किया संजय दुबे ने। 

शायद ही कुछ ऐसा हो जो संच्चिदानंद भारती को उफरें खाल के बाकी ग्रामीणों से अलग करता हो। ये तो जब वो हमारा स्वागत गुलाब के फूल से करने के साथ हमें अपने गले लगाते हैं तब हमें एहसास होता है कि इसी असाधारण रूप से साधारण व्यक्ति के महान कृत्य हमें उफरें खाल खींच कर लाये हैं।

औपचारिकताओं से निबटकर जब हम चारो तरफ फ़ैली पर्वत श्रृंखलाओं पर नज़र दौडाते है तो हमें भारती जी की अद्भुत उपलब्धियों की गुरुता का एहसास हो जाता है। दरअसल भारती ने एक समय नग्न हो चुकी उत्तराखंड के पौड़ी ज़िले में स्थित दूधातोली पर्वत श्रृंखला के एक बड़े हिस्से को राज्य के सबसे बढिया और घने जंगलों में तब्दील कर दिया है। उनकी कोशिशों की बदौलत सैंकड़ो पेड़ सरकारी कुल्हाड़ी के शिकार होने से बच गए- ये छोटी सफलता एक बड़े परिवर्तन की नींव बनी। महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस घटना ने उफरें खाल और इसके आसपास के लोगों में अपने अधिकारों की समझ और एकता की भावना पैदा कर दी।   

साल 1960 के बाद अनियंत्रित औद्योगिकरण ने पहाड़ों के एक लंबे-चौड़े हिस्से को प्राकृतिक संपदा का गोदाम बना डाला। एक ऐसा गोदाम जिसमें मैदान की ज़रूरत के सामान रखे होते थे। 1970 के दशक में वन्य संपदा के विनाश को रोकने के लिए सबसे मशहूर संघर्ष था चिपको आंदोलन, इसकी शुरुआत चमोली ज़िले के गोपेश्वर नाम की जगह से हुई। भारती उस समय गोपेश्वर के कॉलेज में पढ़ रहे थे और इस आंदोलन में उन्होंने भी सक्रिय भुमिका निभाई। भारती जी ने पेड़ों के संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए कॉलेज में एक समूह भी बनाया जिसका नाम था 'डालियों का दागड़िया' (पेड़ों के मित्र)। पढ़ाई खत्म करके जब वो उफरें खाल पहुंचे तो वहां भी उनका सामना विनाश की कुछ ऐसी ही परिस्थितियों से हुआ। भारती बताते हैं, "उसी दौरान वन विभाग ने डेरा गांव के समीप लगे पेड़ों का एक बड़ा हिस्सा काटने का फैसला किया। चिपको आंदोलन से जुड़ा होने की वजह से मुझे पता था कि इस परिस्थिति से कैसे निपटना है, मैंने गांव वालो को साथ लेकर अभियान शुरू कर दिया।" उनकी कोशिशों की बदौलत सैंकड़ो पेड़ सरकारी कुल्हाड़ी के शिकार होने से बच गए। बाद में ये छोटी सी सफलता एक बड़े परिवर्तन की नींव बनी। महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस घटना ने उफरें खाल और इसके आसपास के लोगों में अपने अधिकारों को लेकर समझ और एकता की भावना पैदा कर दी।

पहाड़ों के बुजुर्ग याद करते हैं कि किस तरह से एक समय में यहां के वन, इनमें रहने वाले जंगली जानवरों और इस पर ईंधन और भोजन के लिए आश्रित गाँव वालों, दोनों के लिए पर्याप्त हुआ करते थे। लेकिन, जैसे-जैसे जंगलो की कटाई अनियंत्रित होती गई, गाँव वालो को दोहरी मार झेलनी पड़ गई-- एक तरफ़ तो उनके लिए ज़रूरी संसाधनों का अकाल पड़ने लगा, वहीं दूसरी ओर जंगली जानवर भी सिकुड़ते वनों के चलते अपनी ज़रूरतें पूरी न होने से इंसानी रिहाइशों में सेंध लगाने लगे थे। लेकिन भारती की सलाह पर पास के डेरा गांव के लोग इन जानवरों को मारने की बजाय अपने घरों और खेतों के चारो तरफ चारदीवारियां खड़ी करने लगे। 1980 में बननी शुरू हुई दीवार के लिए सिर्फ डेरा गांव के ही नहीं बल्कि दूसरे गांवो के लोगों ने भी आर्थिक सहयोग दिया। आज 9 किमी लंबी इस दीवार के प्रयोग को और जगहों पर भी लागू किया जा रहा है। इसी दौरान भारती ने एक स्थानीय स्कूल में अध्यापन का कार्य भी शुरू कर दिया। उनके पुराने साथी और पेशे से डॉक्टर, दिनेश ने बताया कि ये उनकी सफलता के सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक था। क्योंकि ऐसा करने से वो सीधे-सीधे पर्यावरण सरंक्षण के संदेश को नई पीढी तक पहुंचा पाए। 

1970 के अंत तक जंगलों की कटाई इस स्तर पर पहुंच चुकी थी कि इसने सरकारी अमले में भी इससे निपटने के लिए क़दम उठाने की बेचैनी पैदा कर दी। उन्होंने संरक्षित वनों के खाली पड़े भू-भाग पर चीड़ के पेड़ लगाने शुरू कर दिए। भारती के अनुसार ये क़दम खतरनाक साबित हुआ। वो कहते हैं, "चीड़ के जंगलों ने ज़मीन में नमी का स्तर तेज़ी से कम किया और नमी की कमी के साथ चीड़ के पेड़ों की पत्तियों में मौजूद ज्वलनशील पदार्थ ने  जंगल में आग की घटनाओं को भी बढ़ा दिया। इसके अलावा चीड़ की जड़ों में मिट्टी की बेहतर पकड़ के गुण न होने के चलते भू-स्खलन के खतरे भी बढ़ गए।" 1980 में भारती ने एक दूसरा तरीका निकाला। वन विभाग की मदद से उन्होंने स्थानीय पहाड़ी प्रजाति के पौधे--देवदार, बुरांस, बांच आदि--की नर्सरी खोली। ये कोशिश बाद में दूधातोली लोक विकास संस्थान(डीएलवीएस) के रूप में विकसित हुई जो आज पूरे क्षेत्र में स्थानीय पहाड़ी पौधे लगाने के साथ-साथ अपने अपने साथ जुड़े 150 गांवों में सालाना पर्यावरण जागरुकता शिविर का आयोजन भी करता है। डीएलवीएस क्षेत्र की इसी समय भारती गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र के संपर्क में आए, जिन्होंने उन्हें छोटे स्तर की बावड़ियों और पानी के स्रोत तैयार करने के तरीके सुझाए। भारती ने इन सिद्धांतों को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया और पुराने, सूखे पड़े पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया।
महिलाओं के सशक्तिकरण का भी बड़ा ज़रिया बना है--पहाडों में कामकाज के अभाव में ज्यादातर पुरूष मैंदानो की ओर चले जाते है और घर की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर आ जाती है और इन्हें ही संसाधनों के अकाल की मार झेलनी पड़ती है। इनकी सहभागिता बढ़ाने के लिए भारती ने हर गांव में महिला मंगल दल की नींव डाली और उनके सुरक्षित भविष्य की जिम्मेदारी का थोडा सा बोझा उन्ही के कन्धों पर डाल दिया। पहले वृक्षारोपण अभियान के बाद जितने गांवो ने इसमें हिस्सा लिया था उन्होंने एक सामूहिक फैसला लिया कि अगले 10 सालों तक जंगल में सारी प्रतिकूल गतिविधियां रोक दी जाएंगी। महिला मंगल दल के माध्यम से महिलाओं ने जंगलों के रखरखाव और उनमें किसी के अवांछित प्रवेश को रोकने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली।

एक दशक के भीतर ही दूधातोली के लोगों ने अपने खोए हुए जंगलों का एक बड़ा हिस्सा वापस पा लिया। भारती गर्व से बताते हैं कि पिछले 27 सालों के दौरान पूरे जंगल को लगाने में गांव वालों ने बमुश्किल 5-6 लाख रूपए खर्च किए होंगे। शुरुआती नर्सरी स्थापित करने के लिए मिली सहायता के बाद डीएलवीएस ने कभी कोई और सरकारी सहायता नहीं मांगी। इसकी बजाय नर्सरी के पौधों की बिक्री के जरिए इसने अपने कार्यक्रमों के लिए धन का बंदोबस्त ख़ुद ही किया। असल में भारती वन संरक्षण को लेकर सरकारी रवैये की आलोचना करते हैं। उनके मुताबिक, "वन रिज़र्व करने का अर्थ है पहाड़ी लोगों के वन में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगना लेकिन पैसे के लालच में वन अधिकारी ठेकेदारों के साथ मिलकर इन्ही कानूनों का खुले आम उल्लंघन करते हैं।"

1987 में पूरा इलाका भीषण सूखे की चपेट में था। चिंतित डीएलवीएस ने हर पेड़ के पास एक छोटा सा गड्ढा बनाने का फैसला किया ताकि इनमें पानी इकट्ठा हो सके और पेड़ों को जीने के लिए कुछ औऱ समय मिल सके। इसी समय भारती गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र के संपर्क में आए, जिन्होंने उन्हें छोटे स्तर की बावड़ियों और पानी के स्रोत तैयार करने के तरीके सुझाए। भारती ने इन सिद्धांतों को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया और पुराने, सूखे पड़े पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया। इसके अलावा उन्होंने कई नए जलस्रोतों का भी निर्माण किया। नतीजा, छोटे-बड़े लगभग 12 हजार तालाब अब 40 से ज्यादा गांवों की पानी की जरूरत बखूबी पूरी करते हैं। सिमकोली गांव के सतीश चंद्र नौटियाल एक छोटे से कुएं की तरफ इशारा करके बताते हैं कि 2005 में इसे बनाने में भारती ने उनकी सहायता की थी। वो कहते हैं कि आज ये कुआं ही पूरे गांव के आस्तित्व का आधार है।

भारती से विदा लेते वक्त उनके पुराने साथी रहे पोस्टमैन दीनदयाल धोंडियाल और किराना व्यापारी विक्रम नेगी के चेहरे गर्व से चमक रहे थे। नेगी कहते हैं, "जंगलो की कटाई रोकना तो एक छोटा सा क़दम था। असली चुनौती थी पहाड़ों की खत्म हो चुकी सुंदरता को फिर से वापस लाना।"

निस्संदेह भारती और उनके साथियों ने इस चुनौती पर एक चमकदार जीत अर्जित की है।

 http://www.tehelkahindi.com/UjlaaBharat/KhaamoshKranti/195.html[/b]

हेम पन्त

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« Reply #45 on: November 24, 2007, 05:05:16 PM »
bahut sundar article chun ke laaye hain Mehta ji.......Aise kai log hain jo Gumnaam reh kar bahut Important kaam karte hain.....unhe aage laane ki jarurat hai.....logo ko unke baare me jaankaari honi chaahiye

suchira

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« Reply #46 on: November 26, 2007, 02:37:38 PM »
<deepakdhyani@yahoo.com> wrote

You all are requested to support the efforts of farmers who wanna sell their products directly to you. Please Come & see at India International Trade Fair 2007.....
 
Foundation SHURWAAT
Stall No. 5, Hall No. 6,
Uttarakhand Pavilion (IITF 2007),
Pragati Maidan, New Delhi
 (14-27 November 2007)
 
Or Call them on +91-9210776661 to place your order and buy ur own native products directly from fields and pass the benefits to our own guys.....
 
Your presence will be highly appreciated for the cause of the development of Rural Uttarakhand. .... also request you to share this info with your family and Friends who can visit or place orders to boost the moral of our own Farmers... who still dare to grow our own native products...
 

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Vision lost, not courage
« Reply #47 on: November 30, 2007, 09:23:50 AM »
Vision lost, not courage

He has trekked on many dangerous routes, the recent one being an extremely treacherous 70-km Mangti-Adi Kailash (16,300 feet from the sea level) trek in Uttarakhand.

The 41-year-old Tata Steel executive completed this 14-day expedition virtually on his own, carrying luggage on his back as other hikers do.

Meet Atul Ranjan Sahay, the man in action who lost his vision, though not courage, when he was 23. The visually-challenged man from Jamshedpur, where he works as a senior manager in Tata Steel, says his Adi Kailash expedition has been “the most challenging one”.

“Adi Kailash was the most challenging expedition because it is at 16,300 feet above sea level. Other places I trekked on might be between 13,000-13,500 feet from the sea level.”

This avid trekker gets inspiration from the people like him who can’t see. “I undertake such trekking expeditions so that the visually-impaired people like me learn from me and get inspired,” Sahay told HT over telephone from Jamshedpur.

“I want them to live a life full of joy as I do,” said Sahay, who lost his vision due to some retina-related problem. “That was the time when I had not even completed my post- graduation.”

“The Adi Kailash expedition was the kind of expedition in which only professional mountaineers participated,” recalled Girdhar Manral, manager (adventure), Kumaon Mandal Vikas Nigam (KMVN). “Besides, neither mules nor porters were part of this mission so all the trekkers, including Sahay, carried luggage on their backs.”

Hailing from Muzaffarpur in Bihar, Sahay undertook his first trekking expedition to Djongri-la (Sikkim) in 1991. This was followed by two other major trekking missions and now Adi Kailash. Besides, the differently-abled man has undertaken several minor trekking tours as well.

“It is because of my positive attitude that I seek no help from others even when I am travelling,” says the man who has so far visited as many as eight countries on his own.

Sahay enjoys throwing challenges to himself. “It is my way of inspiring the people to face challenges and not get bogged down by them.”


suchira

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« Reply #48 on: November 30, 2007, 11:45:37 AM »
What should migraine sufferers do?

Individuals with mild and infrequent migraine headaches that do not cause disability may require only OTC analgesics. Individuals who experience several moderate or severe migraine headaches per month or whose headaches do not respond readily to medications should avoid triggers and consider modifications of their life-style. Life-style modifications for migraine sufferers include:
    Go to sleep and waking up at the same time each day.
    Exercise regularly (daily if possible). Make a commitment to exercise even when traveling or during busy periods at work. Exercise can improve the quality of sleep and reduce the frequency and severity of migraine headaches. Build up your exercise level gradually. Over-exertion, especially for someone who is out of shape, can lead to migraine headaches.
    Do not skip meals, and avoiding prolonged fasting.
    Limit stress through regular exercise and relaxation techniques.
    Limit caffeine consumption to less than two caffeine-containing beverages a day.
    Avoid bright or flashing lights and wearing sunglasses if sunlight is a trigger.
    Identify and avoid foods that trigger headaches by keeping a headache and food diary. Review the diary with your doctor. It is impractical to adopt a diet that avoids all known migraine triggers, however, it is reasonable to avoid foods that consistently trigger migraine headaches.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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« Reply #49 on: November 30, 2007, 11:55:51 AM »


Really very good information.

What should migraine sufferers do?

Individuals with mild and infrequent migraine headaches that do not cause disability may require only OTC analgesics. Individuals who experience several moderate or severe migraine headaches per month or whose headaches do not respond readily to medications should avoid triggers and consider modifications of their life-style. Life-style modifications for migraine sufferers include:
    Go to sleep and waking up at the same time each day.
    Exercise regularly (daily if possible). Make a commitment to exercise even when traveling or during busy periods at work. Exercise can improve the quality of sleep and reduce the frequency and severity of migraine headaches. Build up your exercise level gradually. Over-exertion, especially for someone who is out of shape, can lead to migraine headaches.
    Do not skip meals, and avoiding prolonged fasting.
    Limit stress through regular exercise and relaxation techniques.
    Limit caffeine consumption to less than two caffeine-containing beverages a day.
    Avoid bright or flashing lights and wearing sunglasses if sunlight is a trigger.
    Identify and avoid foods that trigger headaches by keeping a headache and food diary. Review the diary with your doctor. It is impractical to adopt a diet that avoids all known migraine triggers, however, it is reasonable to avoid foods that consistently trigger migraine headaches.


 

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