श्रद्देय त्रिपाठी जी के साथ करीब से रहने का सौभाग्य मुझे भी मिला, जब वह उत्तराखण्ड विधान सभा में विधायक थे, तो अक्सर उनसे मेरी मुलाकात होती थी, कुछ सरकारी दौरों में भी मुझे उनके साथ जाने का मौका मिला, सदन में सदन की समितियों में जन भावना को प्रमुखता से रखते मैंने उन्हें स्वयं देखा। उनकी सच्चाई से सभी लोग भयभीत रहते थे, सही बात को प्रभावी ढंग से कहना, त्रिपाठी जी से सीखा जा सकता है। उत्तराखण्ड की छोटी-छोटी चीजों की उन्हें जनकारी थी। एक बार नैनीताल में जल निगम का निरीक्षण करने जब हम लोग गये तो अधिकारियों ने बताया कि फ्लैट के छोर पर जो नलकूप लगे हैं, वह झील का पानी नहीं खींचते हैं, तो त्रिपाठी जी ने कहा कि जहां पर यह मैदान है वहां पर भी झील ही थी, १९१० के आस-पास यहां पर नैना पीक से भू-स्खलन हुआ था, आज भी इसके नीचे झील है, तो अधिकारियों का मुंह देखने लायक था।
उनकी एक और खात बात थी, वह वी०आई०पी० होने के बजाय बिपिन दा ही रहना चाह्ते थे। विधायक बनते ही जहां लोग नई और लग्जरी गाड़ी खरीद लेते हैं, वहीं त्रिपाठी जी देहरादून से द्वाराहाट या कहीं और का सफर बस से ही तय किया करते थे। एक बार मैंने कहा चाचा जी ( मैं उनको विधायक जी की जगह यही सम्बोधन देते थे और वे भी मुझे इसी रिश्ते का स्नेह देते थे) आपको रेलवे कूपन मिलते हैं आप हल्द्वानी तक ट्रेन से जाया करिये या टैक्सी से। तो उन्होंने कहा कि मैं वी०आई०पी० नहीं बनना चाहता। ट्रेन में सब सो जाते हैं और टैक्सी में २-३ आदमी ही जा पाते हैं, वहीं बस में ५०-६० लोगों से सम्पर्क होता है, उनकी समस्यायें पता चलतीं है, उनके विचार पता चलते हैं, ऎसा नहीं होता कि सिर्फ पढ़ा-लिखा आदमी ही विचारवान होता है। कभी-कभी अन्पढ़ भी ऎसी बात बताते हैं कि आई०ए०एस० भी वहां तक नहीं सोच पाते।
तो इतने सरल और हर समय उत्तराखण्ड के विकास की सोच रखने वाले थे, त्रिपाठी जी। वासतव में उनके जाने से हमेने एक ऎसा नेता खो दिया, जिसकी हुंकार और दहाड़ गलत काम करने वालों को दुबकने के लिये मजबूर कर देती थी।
उनकी मृत्यु के बाद सदन में उन्हें श्रद्धांजलि दी गई थी, वैसा सन्नाटा मैंने सदन में सभी नहीं देखा, सभी गमगीन और अधिकांश उनकी चर्चा करते समय रो भी पड़े थे। श्री काशी सिंह ऎरी जी ने अपना भाषण रोते-रोते ही पूरा किया था, उन्होंने कहा कि त्रिपाठी जी की मृत्यु के बाद उनके बड़े और छोटे भाई को ढांढस बधाते हुये मैंने कहा कि "दाज्यू आप कह रहे होम मेरा छोटा भाई चला गया, मैं क्या करुं" और भुला तुम कह रहे हो कि मेरा ददा चला गया मैं क्या करुं, मेरा तो बड़ा और छोटा भाई ही चला गया, आप लोग बताओ, मैं क्या करुं"
सदन में यह सब लिखते हुये भी मेरे आंखों में आंसुं थे और इन पंक्तियों को लिखते समय भी।