सीतावनस्यूं: सीता जी का दूसरा वनवास
लंका विजय के बाद जब भगवान श्री राम सीता जी व लक्ष्मण सहित अयोध्या आ गये, अयोध्या में राजकाज सही चल रहा था लेकिन राजा राम को शंका थी कि प्रजा उनके बारे में न जाने क्या-क्या धारणा रखती है। इसलिए उन्हौंने अपने कुछ दूत लोगों की बातें सुनने के लिए लगा रखे थे। एक दिन एक दूत ने सूचना दी कि एक धोबी अपनी पत्नी का ड़ांट रहा था और कह रहा था कि तू रातभर कहां रही? जा मेरे घर से निकल जा। धोबी कह रहा था कि मैं तेरे लिए कोई राम थोड़े ही हूं जो रावण के घर रही सीता को दुबारा अपने घर रख लूँ।
दूत की बात सुनकर राजा राम को काफी दु:ख हुआ। लोकलाज के भय से राम ने सीता को दुबारा त्यागने का मन बनाया और लक्ष्मण को बुलाकर सीता को वन में छोड़ आने का हुक्म दिया। बड़े भाई श्री राम की आज्ञा से लक्ष्मण जी सीता माता को रथ पर बिठाकर दूर जंगल में छोड़ आये। कहते हैं कि लक्ष्मण जी सीता जी को उत्तराखण्ड देवभूमि के ऋर्षिकेश से आगे तपोवन में छोड़कर चले गये। जिस स्थान पर लक्ष्मण जी ने सीता को विदा किया था वह स्थान देव प्रयाग से ४ किलोमीटर आगे पुराने बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित है। तब से इस गांव का नाम सीता विदा पड़ गया। यहां से चार किलोमीटर आगे चलने पर वह स्थान आता है जहां सीता माता जी ने अपनी कुटिया बनाई थी। उस स्थान को सीता कुटी कहते हैं। इस स्थान को सीता सैंण भी कहा जाता है। यहां के लोग कालान्तर में इस स्थान को छोड़कर यहां से काफी ऊपर जाकर बस गये और यहां के बावुलकर लोग सीता जी की मूर्ति को अपने गांव मुछियाली ले गये। वहां पर सीता जी का मंदिर बनाकर आज भी पूजा पाठ होता है। कुछ समय बाद सीता जी अपनी कुटी छोड़कर बाल्मीकि ऋर्षि के आश्रम आधुनिक कोट महादेव चली गई।
त्रेता युग में रावण, कुम्भकरण का वध करने के पश्चात कुछ वर्ष अयोध्या में राज्य करके राम ब्रह्म हत्या के दोष निवारणार्थ सीता जी, लक्ष्मण जी सहित देवप्रयाग में अलकनन्दा भागीरथी के संगम पर तपस्या करने आये थे। इस संबध में केदारखण्ड में लिखा है कि:-
यत्र ने जान्हवीं साक्षादल कनदा समन्विता।
यत्र सम: स्वयं साक्षात्स सीतश्च सलक्ष्मण।।
सममनेन तीर्थेन भूतो न भविष्यति।
केदार. १३९-३५-५५
जहां गंगा जी का अलकनन्दा से संगम हुआ है और सीता-लक्ष्मण सहित श्री रामचन्द्र जी निवास करते हैं। देवप्रयाग के उस तीर्थ के समान न तो कोई तीर्थ हुआ और न होगा।
पुनर्देवप्रयागे यत्रास्ते देव भूसुर:।
आहयो भगवान विष्णु राम-रूपतामक: स्वयम्।।
केदार. १५०-८०-८१
केदारखण्ड ;अध्याय १५८-५४-५५द्ध में भी दशरथात्मज रामचन्द्र जी का लक्ष्मण सहित देवप्रयाग आने का उल्लेख है।
अध्याय १६२-५० में भी रामचन्द्र जी के देवप्रयाग आने और विश्वेश्वर लिंग की स्थापना करने का उल्लेख है।
राम भूत्वा महाभाग गतो देवप्रयागके।
विश्वेश्वरे शिवे स्थाप्य पूजियित्वा यथाविधि।।
देवप्रयाग से आगे श्रीनगर में रामचन्द्र जी द्वारा प्रतिदिन सहस्त्र कमल पुष्पों से कमलेश्वर महादेव जी की पूजा करने का वर्णन है।
रामायण में सीता जी के दूसरे वनवास के समय में रामचन्द्र जी के आदेशानुसार लक्ष्मण द्वारा सीता जी को ऋषियों के तपोवन में छोड़ आने का वर्णन मिलता है गढ़वाल में आज भी दो स्थानों का नाम तपोवन है एक जोशीमठ से सात मील उत्तर में नीति मार्ग पर तथा दूसरा ऋषिकेश के निकट तपोवन है।केदारखण्ड के १५०-८७ और १४९-३५ में रामचन्द्र जी का सीता और लक्ष्मण जी सहित देवप्रयाग पधारने का वर्णन मिलता है।
इत्युक्ता भगवन्नाम तस्यो देवप्रयाग के।
लक्ष्मणेन सहभ्राता सीतयासह पार्वती।।
देव प्रयाग में रघुनाथ जी का प्राचीन मंदिर है। वहां से दो-तीन मील आगे श्रीनगर मार्ग पर सीता कुटी, विदा कुटी स्थान है। सीता कुटी में सीता जी का प्राचीन मंदिर है। मालूम होता है कि देवप्रयाग में श्री रामचन्द्र जी ने सीता कुटी-विदा कुटी तक आकर किसी उपयुक्त ऋषि आश्रम में सीता जी को छोड़ आने के लिए लक्ष्मण जी के साथ विदा किया था। सीताकुटी-विदाकुटी से कुछ मील आगे मुछयाली गांव में सीता जी का मंदिर है।
मुछियाली गांव से ३ मील ऊपर सीतावनस्यूं की ओर सल्ड गांव में भी सीता जी का प्राचीन मंदिर है। सल्ड गांव से ४ मील आगे एक परम रमणीक समतल उपत्यका है, जिसका नाम सीता जी के नाम पर सीतावनस्यूं है। स्मरण रहे कि गढ़वाल की अनेक पटि्यों के नामकरण उनके प्रभावशाली सामन्तो के नाम पर किये गये हैं, यथा कफोलस्यूं, रावतस्यूं, असवालस्यूं, ढौंड़ियालस्यूं, आदि परन्तु उन्हौंने अपनी इस पट्टी का नाम सीतावनस्यूं सीता जी के नाम पर रखा है जिससे कि इस क्षेत्र में सीता जी के प्राचीन ऐतिहासिक सम्बन्ध की पुष्टि हो जाती है।
यहां पर सीतावनस्यूं के मध्य कोट महादेव में तीन नदियों के संगम पर बाल्मीकि ऋषि का आश्रम था। जिसकी प्रतिमायें आज भी यहां के निकटम फलस्वाड़ी गांव में हैं। महाकवि तुलसीदास जी ने भी रघुवंश में वर्णित जिस तपोवन में सीता त्याग किया गया था उस तपोवन की भागीरथी तीर पर होने की पुष्टि की है। यही इसी बाल्मीकि आश्रम में सीता जी ने दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया। जिनका नाम लव-कुश पड़ा। यहीं पर राजा राम के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को लव और कुश ने पकड़ लिया था और राजा राम की सेना को परास्त कर स्वंय राम को यहां आने के लिए विवश कर दिया था। जब राजा राम अपने घोड़े को छुड़ाने यहां आये तो लव और कुश उनसे काफी तर्क-वितर्क करने लगे। कहते हैं कि बात को बढ़ता देख सीता माता ने लव-कुश से कहा कि बेटा यही श्री राम हैं और ये तुम्हारे पिता हैं। सीता की बात सुनकर लव-कुश तो मान गये कि श्री राम हमारे पिता हैं। लेकिन श्री राम को फिर भी शंका हुई कि ये दोनो बालक मेरे ही पुत्र हैं। बाल्मीकि ऋर्षि के समझाने पर भी जब श्री राम को विश्वास नही हुआ तो श्री राम ने सीता माता को पुन: प्रमाण देने के लिए कहा। सीता माता ने धरती माता से विनती की कि हे! धरती माता मैं जिन्दगी भर मुसीबतों का सामना करते हुए अपने पतिव्रता धर्म को निभा रही हूँ आज तो मुझे राज महलों में होना चाहिए था लेकिन मैं तपोवन में इन श्री राम की धरोहर इन बच्चों का पालन पोषण कर रही हूँ। मैं जब रावण की कैद में थी तो तब श्री राम ने मेरे सतीत्व की अग्नि परीक्षा ली थी लेकिन आज फिर श्री राम को मुझपर विश्वास नही हो रहा है। इसलिए हे माता अब मेरे पास प्रमाण देने के सिवाय कुछ भी बाकी नहीं रह गया है। यदि मैं सच्ची पतिव्रता धर्म निभा रही हूँ तो अब आप मुझे अपनी गोद में ले लीजिये। बस फिर क्या था अचानक जोरदार आवाज के से साथ धरती फट गई और सीता माता खड़े-खड़े पृथ्वी में धंसने लगी रामचन्द्र जी ने सीता जी को ऊपर खींचने की कोशिश की लेकिन उनके हाथ सिर्फ सीता जी के बाल ही आये । तब से अब तक यहां पर सीता जी की मन इच्छा पूर्ति के कारण मनसार का मेला लगता है।
यह घटना जिला पौड़ी गढ़वाल के सितोनस्यूं पट्टी के कोट महादेव के पास जिस खेत में घटी थी वह कोरसाड़ा गांव का है । फलस्वाड़ी के भट्ट लोग इसके पुजारी हैं। यह मेला कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है खेत में एक गोल पत्थर ;लोड़ीद्ध तथा बाबड़ घास की १६० चोटियां बनाकर पूजा होती है बाद में बाबड़ घास को ही प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। क्योंकि राम के हाथों में सीता जी के बाल ही आये थे। अनेकों नर और नारी अपने मनोती के लिए इस मनसार मेले में आते हैं। यहां आज भी माता सीता कई लोगों की मनोती पूरी करती है।
सीतावनस्यूं के देवल गांव में लक्ष्मण जी के तेरह छोट-छोटे मंदिरों से घिरा हुआ एक विशाल प्रचीन मंदिर है। जिसके निकट एक विस्तृत भू-भाग में प्रतिवर्ष स्थानीय जनता द्वारा सदियों से सीता जी के पृथ्वी प्रवेश की घटना की स्मृति में दिवाली के बाद हर-बोधनी एकादशी के दूसरे दिन एक बड़ा मेला लगता है। जिसमें हजारों स्त्री-पुरूष सम्मिलित होते हैं सीता जी व लक्ष्मण जी आज भी इस क्षेत्र की जनता के आराध्य हैं।
प्रचलित गाथा के अनुसार अश्वमेघ यज्ञ में सीता जी की कुशलता की सूचना पाकर रामचन्द्र जी लक्ष्मण को लेकर जो सीता त्याग के स्थान से परिचित थे, व कुछ अनुचरों सहित इस ऋषि आश्रम में पहुंचे। महर्षि बाल्मीकि ने सीता जी को निकटस्थ गांव में तपस्विनियों के घर रख छोड़ा था, राजा राम का आदेश पाकर गांव के लोगों ने सीता जी को ससम्मान , सजा-संवारकर गाजे-बाजों के साथ बेटी की तरह बिदाई की । स्थानीय परम्परानुसार दूण-कंण्डी के साथ ससम्मान रामचन्द्र जी के समक्ष एक विस्तृत खेत के मध्य में जहां सम्भवत: श्री रामचन्द्र जी लक्ष्मण जी सहित ठहरे हुए थे, तथा जहां पर स्थानीय लोक गाथानुसार राम के कटुव्यवहार से सीता जी पृथ्वी में व्रविष्ट हुयी थीं प्रस्तुत किया।
आज भी जहां पर सीता जी धरती में समाई थी वहां पर कुरसाड़ा गांव वाले सीता जी के नाम पर एक गुड़िया बनाकर बाबड़ की १६० चोटियां बनाकर गड़िया का त्रैणीबन्धन करते हैं तथा स्थानीय दहेज दूण-कण्डी के साथ जैसे यहां मायके से ससुराल जाते समय अपनी बेटियों को बिदा करते हैं उसी प्रकार से सीता जी को विदा करते हैं। गुड़िया को कन्धों पर उठाकर सार गाजे-बाजे सहित खेत के मध्य में स्थित समाधि स्थल में छोड़ देते हैं। और दूसरी ओर गांव से लक्ष्मण मंदिर से लोग गाजे-बाजों के साथ फरस्वाड़ी के खेत में आते हैं। और पूजा पाठ के बाद सीता जी को धरती में समा देते हैं तो उसके सिर के बाबड़ रूपी घास के बालों को प्रसाद के रूप में बांट देते हैं। जिस क्षेत्र में सीता जी की समाधि स्थल है उसमें सदैव खेती होती है। खेत की लम्बाई-चौड़ाई इतनी है कि उसमें राजा राम ससैन्य ठहर सकते थे। यहां पर कोट महादेव के पास तीन नदियां लक्ष्मण गाड़, सीता गाड़ और बाल्मीकि गाड़ नाम की नदियां कोटमहादेव में मिलकर त्रिवेणी बनाती हैं। साथ ही नजदीक पर ही बाल्मीकि मंदिर, लक्ष्मण मंदिर और सीता मंदिर त्रेतायुग की याद दिलाते हैं।
यहां पर लगने वाले मेले के प्रारम्भ में लक्ष्मण जी के मंदिर से लक्ष्मण जी की विशाल रंगीन ध्वजायें फहराती हुई आती हैं। सात पुरोहित बिना हथियार से उस समाधिस्थल से जो उत्सव के बाद किसानों द्वारा हल से हम वार हो जाता है, मिट्टी हटा देते हैं। पृथ्वी गर्भ में लगभग एक हाथ नीचे जब एक छोटी सी लिंगाकार शिला प्राप्त होती है तो खुदाई बन्द कर पुरोहित समाधिस्थल की विधिवत पूजा करते हैं। पृथ्वी गर्भ में क्या रहस्य है यह अविदित है। किंवदन्ति है कि किसी शंकालु ने उसे पूरी तरह से खोद कर देखने का दु:स्साह किया परन्तु उसकी तुरन्त मृत्यु हो गई।
यहां पर सीता जी की गुड़िया को सादर समर्पित करने के बाद सांयकाल को मेला समाप्त हो जाता है। और यात्रियों सहित लक्ष्मण मंदिर की रंगीन ध्वजायें वापस लक्ष्मण मंदिर को चली जाती हैं।
उक्त तथ्यों के आधार पर यह बात साबित होती है कि जगत माता सीता जी को जब श्री राम ने लोक मर्यादा का निर्वहन करते हुए दुबारा वन में भेजा था तो उन्हें यहीं उत्तराखण्ड में ही छोड़ा गया था। सीता जी से संबधित कई लोक गीत और लोकमान्यतायें यहां प्रचलित हैं। उत्तराखण्ड भूमि जो कि सदियों से देव भूमि के नाम से जानी जाती है यहां पर भगवान श्री राम से लेकर पांचों पाण्डव अपनी मुक्ति के लिए आये थे। महाराजा दशरथ के नाम से भी देवप्रयाग के पास दशरथ पर्वत है जहां के बारे में कहा जाता है कि महाराजा दशरथ ने श्रवण कुमार को यहीं शब्द भेदी तीर से मारा था। यहीं दशरथ पर्वत पर श्रवण मंगरी देव प्रयाग से कुछ ही दूरी पर आज भी है। कहते हैं कि यहीं पर श्रवण अपने प्यासे माता-पिता के लिए पानी लेने गये थे।
उत्तराखण्ड भूमि धन्य है जहां पर समय-समय पर भगवत जनों के चरण पड़े हैं। यहां की कण-कण में भारतीयता के दर्शन होते हैं। यही वह भूमि है जहां माता सीता ने अपने को धरती माता की गोद में सर्मपित किया।