Author Topic: जौनसार बावर उत्तराखंड -JAUNSAR BAWAR UTTARAKHAND  (Read 82738 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
जौनसार बावर के विभिन्न गांव अपने गर्त में सदियों पुराना इतिहास छिपाये हुये है। इनसे संबंधित अलग-अलग गाथाएं, ऐतिहासिक घटनाएं व गोरवांवित करनेवाली कहानियां जुड़ी है।

परंतु हमारा दुर्भाग्य है कि वह केवल मौखिक आदान-प्रदान तक सीमित रही है। नतीजा वास्तविकता व हमारे आज के ज्ञान में दूरी बड़ी है साथ ही उनमें भ्रांतियां जुड़ने की सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। हम अंदाजा नहीं लगा सकते कि गांव बसाने वाला व्यक्ति-परिवार कौन था, किन हालातों में उन्होने जीवनयापन किया, कैसे-कैसे गांव व वंशों का विकास हुआ।

 बहुत सारे लोग अपने परिवार के सदस्यों के बारे में जानकारी का मौका हम सदा के लिये शायद खो चुके हैं। अतः वक्त आ चुका है कि हम जितना जानते हैं या जितना आसानी से पता लगा सकते हैं उतना तुरन्त लिख डालें। क्षेत्र में किसी एक रीवाज, एक या कुछेक विभुतियों या फिर सामाजिक समस्याओं के बारे में लेखनियां लिखी गयी है। परन्तु मुझे किसी गांव विशेष ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को पढ़ने का मौका नहीं मिला।

इसी आवश्यकता को मद्धयनजर मैने सोचा क्यों न अपने गांव मयरावना के इतिहास को लिखने का प्रयास किया जाये। अतः यह लेख आपके सामने है। मुझे मालूम है कि इस शोध अध्धयन को प्रोत्साहन मिलेगा और प्रासांगिकता व सत्यता को करीब लाने में मिलेगी। विभिन्न घटनाओं का वर्णन वास्विकता से कुछ भिन्न हो सकते है। किसी अन्य गांव से संबंध घटनाओं के बारे में उन गांवों में प्रचलित कथन से मिलान इस मौके पर नहीं हो पाया है।



Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
जौनसार बावर की संस्कृति

जौनसार-बावर में आज भी कायम है 'अतिथि देवो भव:' की पंरपरा एक परिवार का अतिथि होता है पूरे गांव का मेहमान हंसी-खुशी का एक पल भी गंवाना नहीं चाहते क्षेत्र के लोग आधुनिक दौर में भी जनजाति क्षेत्र में अतिथि देवो भव: की परंपरा कायम है। जौनसार-बावर का जिक्र होते ही जेहन में एक ऐसे सांस्कृतिक परिवेश वाले पर्वतीय क्षेत्र की तस्वीर कौंधती है जो बाकी दुनिया से बिल्कुल अलग है। खान-पान, रहन-सहन व वेशभूषा ही नहीं, बल्कि यहां के लोगों के जीने का अंदाज भी जुदा है। मेहमानों को सिर माथे पर बिठाना क्षेत्र की संस्कृति है।

 तीज त्योहार से लेकर खुशी का एक पल भी यहां के लोग गंवाना नहीं चाहते। तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य में भी क्षेत्र की संस्कृति कायम है। साढ़े तीन सौ से अधिक संख्या वाले गांवों का यह जनजाति क्षेत्र अनूठी सांस्कृतिक पहचान की वजह से देश-दुनिया के लिए जिज्ञासा का विषय है। प्राकृतिक खूबसूरती, सुंदर पहाडिय़ां और संस्कृति व धार्मिक परिवेश जिज्ञासुओं को बरबस अपनी ओर आकर्षित करता है। यहां की संस्कृति का एक बड़ा अध्याय अनछुआ रहा है।

 जमीनी हकीकत देखने से क्षेत्र को लेकर बाहरी दुनिया में व्याप्त भ्रांतियां शीशे पर जमीं गर्द की तरह साफ हो जाती हैं और तस्वीर उभरती है, उन सीधे-सादे लोगों की जो आज के दौर में भी मेहमान को भगवान का रूप मानते हैं। गांव में एक परिवार का अतिथि पूरे गांव का अतिथि होता है। मेहमाननवाजी तो कोई जौनसार-बावर के लोगों से सीखे। परंपरानुसार घर की महिलाओं द्वारा मेहमानों को घर में आदर पूर्वक बैठाकर हाथ व पैर धुलाए जाते हैं।

घर आए मेहमान के लिए तरह-तरह के पारंपरिक व्यजंन व लजीज पकवान बनाए जाते हैं। मेहमानों की खातिरदारी में क्षेत्र के लोग कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ते। हर स्थिति में हंसते-गाते रहना यहां के लोगों की विशेषता है। प्रसिद्ध समाजसेवी मूरतराम शर्मा का कहना है कि आज के दौर में कहीं पर भी ऐसी संस्कृति देखने को नहीं मिलती है। उनका कहना है कि मौजूदा समय में लोग मेहमानों को छोडि़ए, परिजनों तक से दूरी बनाने लगे हैं।

 इसके अलावा होली, रक्षाबंधन, जातर व नुणाई आदि त्योहार भी धूमधाम से मनाए जाते हैं। हालांकि शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद क्षेत्र में काफी बदलाव आया है, पर लोगों का आज भी अपनी माटी-संस्कृति से जुड़ाव बरकरार है। मेहमानों के लिए व्यंजन त्यूणी: मेहमानों के लिए पारंपरिक व्यंजनों में चावल, मंडुवे व गेंहू के आटे के सीढ़े, अस्के, पूरी, उल्वे व पिन्नवे आदि खासतौर से बनाए जाते हैं। इसके अलावा मांसाहारी मेहमानों के लिए मीट, चावल व रोटी आदि बनाया जाता है।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1

जौनसार में आज भी है संयुक्त परिवार की परंपरावर्तमान में ७४ सदस्यों का है सबसे बड़ा परिवार


जौनसार बावर क्षेत्र में आज भी संंयु1त परिवार की परंपरा कायम है। जो इस परिवर्तित युग में भी एक मिसाल है। इस परंपरा को निभाने में क्षेत्र के विधायकगण और जनप्रतिनिधियों सहित दर्जनों अन्य लोग शामिल हैं।जौनसार बावर क्षेत्र में वर्तमान में सबसे बड़ा साझाा परिवार चिल्हाड़ गांंव निवासी पंडित माधोराम का है। इस परिवार में ७४ महिला, पुरुष और बच्चे हैं। इसी प्रकार चकराता क्षेत्र के विधायक प्रीतम सिंह के परिवार में भी इतने ही सदस्यों की सं2या बताई जाती है।

 पाटी गांव केे रतन सिंह और 1वानू निवासी भगतराम, बुरास्वा के नारायण सिंह और चिल्हाड़ निवासी पातीराम, मंगरोली के अमर सिंह के भी ऐसे ही परिवार हैं, जिन परिवारों की सदस्य सं2या ५० से अधिक है। यहां के लोग बड़ा परिवार होने को अपना गौरव समझाते हैं। संयु1त परिवार की परंपरा का सबूत राजस्व विभाग का रिकार्ड है।

 यदि इस रिकार्ड पर गौर करें तो एक दशक पूर्व इस क्षेत्र की जनसं2या ९७३२६ थी, जो ६९२७ परिवारों में बसे थे। वर्तमान में यह जनसं2या एक लाख से ऊपर पहुंच गई है। तो परिवारों मेें मामूली वृद्धि के साथ यह सं2या ७४२६ पहुंच गई है। संयु1त परिवार की परंपरा का कारण भौगोलिक परिस्थितियां भी मानी जाती हैं। इधर, क्षेत्र के सबसे बड़े परिवार का गौरव प्राप्त माधोराम कहते हैं कि बड़े परिवार के कारण उनके परिवार की उन्नति और बुलंदियां हासिल हुई हैं।

 राजेंद्र राणा बड़े परिवार का फायदा यह बताते हैं कि किसी की भी मौत हो जाने पर उसके बालक अनाथ नहीं होते। साझाा परिवार का संचालन करने वाले वरिष्ठ पुरुष और महिला सबके कार्यों को वितरित करते हैं, जिससे परिवार में किसी प्रकार का भी मनमुटाव नहीं होता है।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
जौनसार बावर: यहां मेहमान है भगवान

आधुनिक दौर में भी जनजाति क्षेत्र में अतिथि देवो भव: की परंपरा कायम है। जौनसार-बावर का जिक्र होते ही जेहन में एक ऐसे सांस्कृतिक परिवेश वाले पर्वतीय क्षेत्र की तस्वीर कौंधती है जो बाकी दुनिया से बिल्कुल अलग है।

 खान-पान, रहन-सहन व वेशभूषा ही नहीं, बल्कि यहां के लोगों के जीने का अंदाज भी जुदा है। मेहमानों को सिर माथे पर बिठाना क्षेत्र की संस्कृति है। तीज त्योहार से लेकर खुशी का एक पल भी यहां के लोग गंवाना नहीं चाहते।

तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य में भी क्षेत्र की संस्कृति कायम है। साढ़े तीन सौ से अधिक संख्या वाले गांवों का यह जनजाति क्षेत्र अनूठी सांस्कृतिक पहचान की वजह से देश-दुनिया के लिए जिज्ञासा का विषय है। प्राकृतिक खूबसूरती, सुंदर पहाड़ियां और संस्कृति व धार्मिक परिवेश जिज्ञासुओं को बरबस अपनी ओर आकर्षित करता है। यहां की संस्कृति का एक बड़ा अध्याय अनछुआ रहा है।

 जमीनी हकीकत देखने से क्षेत्र को लेकर बाहरी दुनिया में व्याप्त भ्रांतियां शीशे पर जमीं गर्द की तरह साफ हो जाती हैं और तस्वीर उभरती है, उन सीधे-सादे लोगों की जो आज के दौर में भी मेहमान को भगवान का रूप मानते हैं। गांव में एक परिवार का अतिथि पूरे गांव का अतिथि होता है।

मेहमाननवाजी तो कोई जौनसार-बावर के लोगों से सीखे। परंपरानुसार घर की महिलाओं द्वारा मेहमानों को घर में आदर पूर्वक बैठाकर हाथ व पैर धुलाए जाते हैं। घर आए मेहमान के लिए तरह-तरह के पारंपरिक व्यजंन व लजीज पकवान बनाए जाते हैं। मेहमानों की खातिरदारी में क्षेत्र के लोग कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ते। हर स्थिति में हंसते-गाते रहना यहां के लोगों की विशेषता है।

प्रसिद्ध समाजसेवी मूरतराम शर्मा का कहना है कि आज के दौर में कहीं पर भी ऐसी संस्कृति देखने को नहीं मिलती है। उनका कहना है कि मौजूदा समय में लोग मेहमानों को छोड़िए, परिजनों तक से दूरी बनाने लगे हैं।

 इसके अलावा होली, रक्षाबंधन, जातर व नुणाई आदि त्योहार भी धूमधाम से मनाए जाते हैं। हालांकि शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद क्षेत्र में काफी बदलाव आया है, पर लोगों का आज भी अपनी माटी-संस्कृति से जुड़ाव बरकरार है।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
नमक-लोटा यानी हर एग्रीमेंट छोटा

रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई'। रामचरित मानस की यह चौपाई आज के अविश्वास, संदेह और पैसा प्रधान दौर में कुछ लोगों को भले अजीब लगती हो, लेकिन यहां एक ऐसा जनजातीय क्षेत्र भी है, जहां वचन न तोड़ने की प्रथा है, दिया वचन पूरा न करना जहां घोर सामाजिक अपराध है।

'लोटा-नमक' नामक इस प्रथा में बड़े से बड़ा संकल्प भी सिर्फ जुबानी लिया जाता है, जिसकी अहमियत रजिस्टर्ड एग्रीमेंट से अधिक है। एक बार संकल्प ले लिया, तो उसकी रक्षा के लिए लोग जान की बाजी लगाने से भी नहीं चूकते।

दून के जौनसार-बावर इलाके के 'जुबानी संकल्प' यानी 'वचन में वजन' का आलम यह है कि संकल्प लेने में कागज-कलम की नहीं, बल्कि लोटा-नमक की जरूरत होती है।

संकल्प लेने वाला व्यक्ति प्रतिज्ञा करता है कि- 'मैं जो संकल्प लूंगा या वचन दूंगा, उस पर हमेशा अटल रहूंगा। यदि ऐसा न हुआ तो मेरा और मेरे परिवार का अस्तित्व ठीक उसी तरह समाप्त हो जाएगा, जैसे पानी से भरे लोटे में नमक का हो जाता है।'

किसी विवाद के दौरान एक-दूसरे पर लगाए गए आरोपों की सत्यता परखने, मतभेद भुलाकर संगठित रहने और किसी भी प्रकार का वचन देने पर उसका पालन करने के उद्देश्य से चल रही है लोटा-नमक परंपरा।

 संकल्प लेने के समय गांव के मुखिया [जिसे स्याणा कहा जाता है] के घर पर पंचायत बुलाई जाती है। पंचायत में प्रत्येक परिवार का कम से कम एक सदस्य अनिवार्य रूप से शिरकत करता है।

 गांव का स्याणा भरी पंचायत में पानी से भरा एक लोटा रखता है। संकल्प लेने वाला व्यक्ति लोटे में नमक की डली डालकर अपने द्वारा किए गए वायदे पर अटल रहने का वचन देता है।

लोक मान्यता है कि लोटा-नमक करने के बाद यदि कोई व्यक्ति अपने वायदे से मुकरता है, तो महासू देवता [क्षेत्र के आराध्य देव] कुपित हो जाते हैं और उसका परिवार सात पीढि़यों तक विपत्तियां झेलते हुए नष्ट हो जाता है। इस परंपरा का सम्मान यहां के बड़े इलाके में लगातार होता रहा है।


SOURCE http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_4688183/

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
जौनसार-बावर के ग्रामीण जंगल से चारे के बदले रोजाना करीब पौने चार लाख रुपये अदा करने को तैयार हैं। वे शायद जानते हैं कि उनकी जिंदगी में जंगल की कितनी अहम भूमिका है।
यह बात हवाई नहीं, बल्कि भारतीय वन अनुसंधान संस्थान के एक सर्वे में सामने आई है। सांख्यिकी विभाग के विश्वेश कुमार, राजीव पांडे और आलोक मिश्रा ने यह जानने के लिए एक सर्वे किया कि आखिर जंगल और उसके आसपास के लोगों के बीच क्या रिश्ता है।

सर्वे के लिए जौनसार के 13 गांवों के उन 50 परिवारों को चुना गया, जो आजीविका के लिए जंगल पर निर्भर हैं। यह जौनसार-बावर का उत्तराखंड का बाजार से दूर वह हिस्सा है, जो 77 प्रतिशत वनाच्छादित है। यहां सड़क आदि जैसी ढांचागत सुविधाएं भी नहीं हैं। उत्तराखंड के लोगों और जंगल के बीत रिश्ते को जानने के लिए इससे बेहतर इलाका नहीं हो सकता। यहां के लोगों की जीविका पशुपालन व खेती पर निर्भर है।

 सर्वे में लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति व उनके चारे के इस्तेमाल के पैटर्न को भी ध्यान में रखा गया। सर्वे में जांच की गई कि लोग जंगल से लगभग मुफ्त मिलने वाले पत्ती, घास व अन्य वन्य उत्पाद आदि चारे की कीमत देने के इच्छुक हैं या नहीं। सर्वे में पता चला कि हर परिवार को हर दिन लगभग 35 किलो चारे की जरूरत होती है। वे भारत सरकार के मानकों व विलिंगनेस टू पे (डब्लूटीपी) के आधार पर जंगल से एक किलो चारे के बदले साढ़े तीन रुपये अदा करने को तैयार है। जौनसार-बावर में ऐसे करीब 3000 परिवार हैं।

सर्वे के आकलन के मुताबिक हर परिवार को अगर जंगल से चारा मिले तो वे रोजाना 52,500 रुपये से लेकर 3,67,500 रुपये या उससे ज्यादा अदा करने को तैयार हैं। विश्वेश कुमार, राजीव पांडे और आलोक मिश्रा के मुताबिक जंगल का उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था में बहुत महत्व तो है ही, यह लोगों की जिंदगी से जुड़ा मसला भी है। जंगलों में मवेशियों का चरान और वन संरक्षण अक्सर एक-दूसरे के विरोध में खड़े नजर आते हैं।

 इसलिए दोनों के बीच संतुलन बहुत जरूरी है। प्रदेश में वनों को बचाने के लिए बहुत अधिक धन की भी जरूरत है। ऐसे में अगर सरकार अपनी नीतियों को और बेहतर करे तो उसे राजस्व का एक साधन भी मिल सकता है।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
जौनसार बावर का एक  गाँव मयरावना का परिचय


मयरावना उत्तराखंड के जिला देहरादून की उत्तरी पहाडियों में स्थित एक छोटा-सा गांव है। समुद्र तल से करीब 2000 मीटर की ऊचाई वाले इस गांव को तीन ओर से सदाबहार वृक्ष सुशोभित करते हैं।

 यहां से सुदूर पहाड़ पर पाण्डवों के इतिहास की गाथा बताने वाली गौरा घाटी हिमालय पर्वत के सौन्दर्य के दर्शन कराती है। इस ेख को तैयार करने में श्री मायारीम जोशी (रीठांण) ने महत्वपूर्णजानकारियां दी। साथ ही श्री दयाराम जोशी (फेंचरांण) व श्री संतराम जोशी (फेंचराण) ने भी जानकारियां देकर अपना सहयोग दिया।

 अतः उनका मैं सादर धन्यवाद करता हूं। इस गांव की ब्राहमणों के अलावा अन्य जातियों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं दी जा सकी है। इसे करने का प्रयास आगे किया जायेगा।



Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
मयरावना गांव में मूलरूप से बुद्धिजीवी ब्राहमण परिवार वासी है। यह स्थान भैंरव देवता के मंदिर के लिए जाना जाता है। ऐसा माना जाता है तथा बु्र्जगों ने उत्तरोत्तर पीढ़ियों को बताया है कि बुरास्वा गांव के एक रावत परिवार ने हिमालय प्रदेश के मईपूर गांव से एक ब्राहमण को देवी-देवताओं की पूजायापन के लिए अपने साथ आने का निमंत्रण दिया, जिसे उस ब्राहमण परिवार ने स्वीकार किया।

 इस निमंत्रण रा एर अन्य कारण भी रहा। पहाड़ी क्षेत्रों में प्रारंभ से प्रथा रही कि ब्राहमण परिवार जिसे ठेमाण नाम से जाना जाता है हिमाचल प्रदेश से जौनसार के लिए रवाना हुआ।

 इस घटना की कोई निश्चित तिथि नहीं कही जा सकती, परंतु परिवार के वर्तमान स्वरुप, विस्तार व उनके पूर्वजों का अध्ययन करने से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह आज से करीब 1000 वर्ष पुरानी बात रही होगी।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
इस क्षेत्र में पहुंचने पर रावत परिवार -बुरास्वा- नामक स्थान पर बस गया, जब कि ब्राहमण परिवार ने थालर(मंजखित्ता) नामक स्थान को भैंरव देवता के मंदिर स्थापना के लिए चुना।

 इसका चुनाव दो कारणों से किया गया, एक यहां पवित्र कुथनोई नदी (जो यमुना की सहायक नदी है) पास में थी ताकि स्नान आदि करके पूजा पाठ किया जा सके। दूसरे यह स्थान सात खतों (कई गांवों का राजनीतिक व सामाजिक समूह) का केंद्र बिंदु था, ये सात खतें हैं- बनगांव (जिसके अंतर्गत यह स्थान पड़ता है), द्वार, मनख, अटगांव, विशलाड़, शेली, बंदूर तथा तपलाड़।

एक बार इस स्थान पर यहां बड़ी लड़ाई हुई। जिसमें कई लोग मारे गये तथा बहुत बड़े पैमाने पर खून-खराबा हुई। जिसमें कई लोग मारे गये तथा बहुत बड़े पैमाने पर खून खराबा हुआ।

केंद्र बिंदु होने से तथा नदी का चौड़ा बहाव के कारण अनेक गांवों के लोगों ने हिन्दु मान्यता के अनुसार इस स्थान को दांह-संस्कार के लिए चुना। इन कारणों से इस स्थान की पवित्रता में कमी आई।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
मयरावना गाँव  की खोज

मयरावना स्थान की खोज एक अनोखी घटना चक्र का हिस्सा है। उस ब्राहमण परिवार का धीरे-धीरे विस्तार होने लगा। उसने खेती-कृषि कार्य के साथ पशू-पालन व्यवसाय होने व शिक्षा का अभाव से घर-परिवार का प्रत्येक सदस्य, जिसमें बच्चे शामिल है, किसी न किसी रूप में अपना योगदान देते थे। गोरू (गाय-बैलों व बछड़ों का समुह) चराने का कार्य -ज्यादत्तर- छोटे बच्चों के जिम्मे रहता था।

 जब भी बच्चे गोरू चराने मयरावना नामक स्थान (-भैरव का देवरा- के सामने पश्चिमकी ओर ऊंची पहाड़ी पर) पर जाते, उस दिन उनके जानवरों को भरपेट चारा मिलता तथा गायर बच्चों (स्थानिय बोली में गाय-बैल चराने वाले को -गायर- कहा जाता है) को कम भूख लगती व उनका दिन का खाना बच जाता, जिसे वे घर बापस ले आते।

 जब अक्सर ऐसा होने लगा तो परिवारवासियों को इस का जानने का मन हुआ। गायर बच्चों ने जब उक्त तथ्य का खुलासा किया तो सब आश्चर्यचकित हुए। इसकी पृष्टि के लिए, कहा जाता है कि कई दिन तक बच्चों व जानवरों के चरागाहों पर नजर रखी गयी ।

 इस घटना की सत्यता साबित होने पर मयरावना नामक स्थान की पवित्रता व इस पर ईश्वरीय कृपा का एहसास उन सबको हुआ। इस पर उस ब्राहमण ने मयरावना नामक स्थान को अपने निवास व परिवार बसाने के लिए चुना। मयरावना के पश्चिम में बुरास्वा गांव है।

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22