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  • मोहन उत्तराखण्डी की पुण्य तिथि: August 08, 2012

Author Topic: Baba Mohan Uttarakhandi(Hero Of Uttrakhand Struggle) - बाबा मोहन उत्तराखण्डी  (Read 22764 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ेशाम ढल रही थी। वर्षा अब भी जारी, शाम के साथ धुंध गहरा गई थी। ऐसे में ही मैंने शाम को घर लौटने का मन बना लिया। बाबा से विदाई ली, गिरते-फिसलते एक घण्टे में घर पहुंच गया। कपड़े बदलने के बाद एक बार बाबा का रिकार्डेड इण्टरव्यू सुना। मन को बड़ी शान्ति मिली, पर न जाने आज मन क्यों सशंकित सा था। ऐसा ही सशंकित भाव आज मैंने बाबा में भी देखा।


अंधेरा हो गया था, बिजली गुल थी, शटरों की खड़खड़ाहट के साथ एक-एक कर आदिबद्री बाजार की दुकानें बन्द होने लगी। कोई नीचे दुकान पर मेरे छोटे भाई विनोद से कुछ कह रहा था। फिर दो-चार लोगों में आपस में बातें हो रही थी। अपने संकित मन की जिज्ञासा को नहीं रोक पाया। भैया को सीढ़ियों के पास बुलाकर उन लोगों के बारे में जानकारी ली। भैया बोला पटवारी लोग हैं, कह
रहे हैं बेनीताल से आ कर थक गए हैं। चाय पिला दो। मैं पूर्वाग्रह से ग्रासित हो चला था। मैंने भैया से कहा- कुछ नहीं, ये सब बेनीताल से उपद्रव कर के आ रहे हैं साफ कह दे, चाय-वाय कुछ नहीं मिलेगी। इसी उपद्रव को अन्जाम देने के फिराक में कर्णप्रयाग
का तत्कालीन एस.डी.एम.जगदीश लाल अवसर देख रहा था, जो उसने शासन की शाबासी पाने के लिए 8 अगस्त की शाम को कर डाला। उसका अपराध जघन्य था, उसने अपने कारिन्दों के साथ शाम को गौशाले के दरवाजे तोड़ डाले और बाबा को सलफास खाने को मजबूर किया। ये लोग बाबा को घसीटते हुए बाहर लाए और उन्हें पहले चांटे जड़े और फिर डण्डों से पीटा। रंडोली के मदन व उसके अन्य साथियों की भी इन लोगों ने पिटाई की, जो घटना के चश्मदीद हैं। इन लोगों ने बड़ी निर्दयता के साथ उस 38 दिनों से अनशन पर बैठे बाबा को वहां से उठाया और बेनीताल के रास्ते से लुढकाते हुए नीचे लाए और कर्णप्रयाग पहुंचाया। रास्ते में ही बाबा प्रणान्त हो चला था पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बाबा को हृदय गति रुकने से मृत बताया गया। भ्रष्ट सत्ता की शक्ति के आगे शासन नत मस्तक था। रोज कर्णप्रयाग में सत्तारूढ़ छुट भैय्याओं की नौटंकी का जो रूप देखा, उससे मन घृणा से भर गया। वहां कर्णप्रयाग में बाबा का शव अस्पताल के आगे रखा 

था। वही शान्त दैदिव्यमान चेहरा था। एक तरफ ढलका हुआ मानो कह रहा था- अंग्रेजी हुकूमत अभी कायम है, न्याय की आशाएं अभी धूमिल हैं, किन्तु मेरी मौत से राजधानी का मुद्दा अब दम नहीं तोड़ेगा। यह मुद्दा अब हमेशा जिन्दा रहेगा और जिन्दा कौम इन सपनों को अवश्य साकार देखेगी।’ बाबा अपने दिल में उत्तराखण्ड व राजधानी का दर्द ले कर चले गए। उनकी मौत पर सारा उत्तराखण्ड जब आन्दोलन की आग में जलने लगा, तो तत्कालीन नौछमी मुख्यमंत्री ने बेनीताल के लिए कई घोषणाएं की। उसमें दो
करोड़ रुपयों से बेनीताल के पर्यटन विकास व बाबा के नाम बेनीताल मोटर मार्ग का नाम व एक भव्य द्वार का निर्माण और भी बहुत सारी घोषणाएं, जो कि एक हृदयहीन, संवेदनहीन तत्कालीन कांग्रेस सरकार नौंटकी की पटकथा का एक हिस्सा भर, किस्सा भर थी। जिसे कभी भी मंचित नहीं होना था, राजनीतिक विदू्रपता को उद्घाटित कर गई। राजनीति के भी बड़े अजब-गजब ढंग हैं। अपनी सरकार में अनशन करते हुए यदि कोई बाबा मरता है, तो कोई बड़ी घटना नहीं समझी जाती। दूसरे की सरकार में
कोई बाबा ऐसे ही मरे, तो इससे सत्ता का एक बहुत बड़ा जघन्य अपराध व बड़ी घटना मान कर उसके विरु( अनशन शुरू किया जाता है। जब दोनों ही घटनाएं साम्य लिए हुए हैं, तो फिर सोच व भावनाओं का यह दोगलापन क्यों? पर यही वर्तमान राजनीति का विभत्स रूप है। सत्ता यदि शक्ति प्रदर्शन षडयन्त्र करने पर आमादा हो जाए, तो रामलीला मैदान की घटना घटती है और अन्ना हजारे का जन लोकपाल विधेयक एक समानांतर सरकार बनाने का षडयन्त्र प्रचारित कर नकारा जाता है। ऐसी ही तो राजनीतिक संस्कृति चल पड़ी है। इन्हीं राजनीतिक अन्तरविरोधों के कारण हमने अपने बाबा मोहन उत्तराखण्डी को खोया, किन्तु बाबा हमेशा सबके लिए उत्तुंग शिखर वाले हिमालय के जीवन्त रूप में दृष्टिगोचर होते रहेंगे। वह हिमालय, जो हमेशा पिघलता हुआ किन्तु उन्नत माल लिए हुए उत्तराखण्ड के सरोकारों, चिन्ताओं के हिमखण्डों का बोझ पीठ पर लादे चलता था। इस हिमालय ने न कभी टूटना सीखा न झुकना। इससे फूटने वाली विचारों व संकल्पों की अजस्र धाराएं नित्य अपने लक्ष्य व गन्तव्य की ओर गतिमान प्रवाहमान रही हैं और रहेंगी। नैनीताल समाचार के राजीव लोचन शाह, पत्रकार पुरुषोत्तम असनोड़ा, पी.सी.तिवारी ने बाबा की मौत के पश्चात दोषियों को दण्डित करने की जो मुहिम चलाई, उसकी जितनी सराहना की जाए, कम है। वे दण्डित तो अभी नहीं हुए, पर चिन्हित तो हो ही गए हैं। सत्य हमेशा जीता है, असत्य का हमेशा पराभव हुआ है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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From: dhirendra pratap <dhirendrapratap100@yahoo.co.in>
Date: Thu, 1 Sep 2011 06:02:13 +0530 (IST)
Subject: Baba Uttarakhandi k anshan ka safer{With photograph)
To: mera pahad <msmehta@merapad.com>

बाबा के अनशन का सफर बाबा का एक संकल्प मैं सार्वजनिक घोषणा करता हूं कि मां नंदा पखाण टोपरी उड्यार से अनशन में बैठ गया हूं। स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि माता नंदारानी मंदिर एवं पखाण के बीच छंपर में मैंने अपना धूना ज्वलित कर दिया है जो अनवरत रहेगा। मां नंदा रानी पखाण स्थिति टोपरी उडयार एवं छंपर दोनों को आंदोलन की ढाल के रूप में प्रयोग किया जाएगा।

- 2 जुलाई 2004 को बेनीताल बाबा मोहन उत्तराखंडी के शब्द।

‘1968 में मेरी बाबा के साथ शादी हुई। सेना की नौकरी छोड़ने के बाद वे राज्य निर्माण को संघर्ष करते रहे। हमारे पास संबंधित पर्याप्त प्रमाणपत्र न होने के कारण हमें विशेष जानकारी नहीं है।’

- कमला देवी नेगी, पत्नी बाबा मोहन उत्तराखंड़ी
उत्तराखंड के अनशन मोहन सिंह नेगी से बाबा मोहन उत्तराखंडी दो अक्तूबर 1994 को उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर दिल्ली जा रहे
सैकड़ों आंदोलनकारियों के साथ यूपी पुलिस और तथाकथित गुंडों के मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर किए गए जुल्म की चीत्कार से मोहन सिंह नेगी की रूह कांप गई। मौके पर ही आजीवन बाल, दाड़ी न काटने की शपथ लेते हुए मोहन सिंह नेगी बाबा मोहन उत्तराखंडी बनकर राज्य-गैरसैंण राजधानी की मांग को जुट गए।
राज्य निर्माण और गैरसैंण राजधानी के लिए कर दिए प्राण न्यौछावर पीढ़ियां प्रेरणा लेती रहेंगी बाबा मोहन उत्तराखंडी से  • विनय बहुगुणा कर्णप्रयाग। ‘अंधेरा मांगने आया रोशनी की भीख, हम अपना घर न जलाते तो और
क्या करते’ ये पंक्तियां उत्तराखंड राज्य और गैरसैंण राजधानी की मांग को लेकर 13 बार आमरण अनशन करने वाले बाबा मोहन उत्तराखंड़ी की शहादत और बलिदान को बयां करती हैं। राज्य निर्माण और जनसरोकारों के लिए संघर्ष का बीड़ा उठाने वाले बाबा आजीवन आदोलनकारियों, आमजन के लिए प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। वर्ष 1948 को पौड़ी जनपद के एकेश्वर विकासखंड के सतपुली तहसील के ग्राम बठोली में मनवर सिंह नेगी के घर पैदा हुए तीन बेटों में मझले मोहन सिंह
नेगी बचपन से ही कर्मठ और जुनूनी तेवरों के लिए जाने जाते रहे। इंटर व
आईटीआई की पढ़ाई के उपरांत वर्ष 1970 में वे बतौर क्लर्क बंगाल
इंजीनियरिंग में भर्ती हुए। मातृभूमि के लिए कुछ करने की इच्छा के कारण
सेना की नौकरी छोड़कर वह वर्ष 1994 में
 उत्तराखंड राज्य आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हो गए। उत्तराखंड राज्य
और उसकी राजधानी गैरसैंण हो इसके लिए 11 जनवरी 1997 में शुरू हुए उनके
आमरण अनशनों का सफर आठ अगस्त 2004 को उनकी मौत के साथ ही खत्म हुआ। बाबा
की अस्थियां उनके पैतृक गांव बठोली से लाकर गैरसैंण के दूधातोली में 30
अगस्त 2004 को प्रतीक चिह्न के रूप में बनाए गए स्मारक में रखी गई हैं।
2 जुलाई से 8 अगस्त 1994 के दौरान बाबा कर्णप्रयाग बेनीताल में अनशनस्थल
के समीप जनप्रतिनधियों के साथ।
•11 जनवरी 1997 को लैंसडाैन के देवीधार में राज्य निर्माण के लिए अनशन।
•16 अगस्त 1997 से 12 दिन तक सतपुली के समीप माता सती मंदिर में अनशन।
•1 अगस्त 1998 से 10 दिन तक गुमखाल पौड़ी में अनशन।
•9 फरवरी से 5 मार्च 2001 तक नंदाठौंक गैरसैंण में अनशन।
•2 जुलाई से 4 अगस्त 2001 तक नंदाठौंक गैरसैंण में राजधानी के लिए अनशन।
•31 अगस्त 2001 को पौड़ी बचाओ आंदोलन के लिए अनशन।
•13 दिसंबर 2002 से फरवरी 2003 तक चॉदकोट गढ़ी पौड़ी में गैरसैंण राजधानी को अनशन।
•2 से 23 अगस्त 2003 तक कौनपुर गढ़ी थराली में अनशन।
•2 से 21 फरवरी 2004 तक कोदियाबगड़ गैरसैंण में अनशन।
•2 जुलाई से 8 अगस्त 2004 तक बेनीताल में अनशन। 9 अगस्त 2004 को अस्पताल
ले जाते समय रास्ते में मौत।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Baba Mohan Uttarakhandi in circle.



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बाबा मोहन उत्तराखंडी जी को श्रधांजलि .......तुम्हारे बलिदान को हम पहाड़ी सार्थक ना कर पाए ये दर्द हमेशा सालता रहेगा ...पर तुम्हारी शहादत को भूलेंगे नहीं हम .

..जय उत्तराखण्ड जय गैरसैण जय बाबा उत्तराखंडी

विनोद सिंह गढ़िया

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वीर बलिदानी बाबा मोहन उत्तराखंडी जी को शत्-शत् नमन।

Harish Rawat

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मेहता जी की आखिरी लाइन में लिखा है
"२ जुलाई से 8   अगस्त तक बैनिताल में  अनशन ..9  अगस्त को अस्पताल ले जाते वक़्त रास्ते में  देहांत "....
..पर कई जगह 8  अगस्त को श्रधांजलि दिवस के तोर पे लिखा गया है ...
From: dhirendra pratap <dhirendrapratap100@yahoo.co.in>
Date: Thu, 1 Sep 2011 06:02:13 +0530 (IST)
Subject: Baba Uttarakhandi k anshan ka safer{With photograph)
To: mera pahad <msmehta@merapad.com>

बाबा के अनशन का सफर बाबा का एक संकल्प मैं सार्वजनिक घोषणा करता हूं कि मां नंदा पखाण टोपरी उड्यार से अनशन में बैठ गया हूं। स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि माता नंदारानी मंदिर एवं पखाण के बीच छंपर में मैंने अपना धूना ज्वलित कर दिया है जो अनवरत रहेगा। मां नंदा रानी पखाण स्थिति टोपरी उडयार एवं छंपर दोनों को आंदोलन की ढाल के रूप में प्रयोग किया जाएगा।

- 2 जुलाई 2004 को बेनीताल बाबा मोहन उत्तराखंडी के शब्द।

‘1968 में मेरी बाबा के साथ शादी हुई। सेना की नौकरी छोड़ने के बाद वे राज्य निर्माण को संघर्ष करते रहे। हमारे पास संबंधित पर्याप्त प्रमाणपत्र न होने के कारण हमें विशेष जानकारी नहीं है।’

- कमला देवी नेगी, पत्नी बाबा मोहन उत्तराखंड़ी
उत्तराखंड के अनशन मोहन सिंह नेगी से बाबा मोहन उत्तराखंडी दो अक्तूबर 1994 को उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर दिल्ली जा रहे
सैकड़ों आंदोलनकारियों के साथ यूपी पुलिस और तथाकथित गुंडों के मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर किए गए जुल्म की चीत्कार से मोहन सिंह नेगी की रूह कांप गई। मौके पर ही आजीवन बाल, दाड़ी न काटने की शपथ लेते हुए मोहन सिंह नेगी बाबा मोहन उत्तराखंडी बनकर राज्य-गैरसैंण राजधानी की मांग को जुट गए।
राज्य निर्माण और गैरसैंण राजधानी के लिए कर दिए प्राण न्यौछावर पीढ़ियां प्रेरणा लेती रहेंगी बाबा मोहन उत्तराखंडी से  • विनय बहुगुणा कर्णप्रयाग। ‘अंधेरा मांगने आया रोशनी की भीख, हम अपना घर न जलाते तो और
क्या करते’ ये पंक्तियां उत्तराखंड राज्य और गैरसैंण राजधानी की मांग को लेकर 13 बार आमरण अनशन करने वाले बाबा मोहन उत्तराखंड़ी की शहादत और बलिदान को बयां करती हैं। राज्य निर्माण और जनसरोकारों के लिए संघर्ष का बीड़ा उठाने वाले बाबा आजीवन आदोलनकारियों, आमजन के लिए प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। वर्ष 1948 को पौड़ी जनपद के एकेश्वर विकासखंड के सतपुली तहसील के ग्राम बठोली में मनवर सिंह नेगी के घर पैदा हुए तीन बेटों में मझले मोहन सिंह
नेगी बचपन से ही कर्मठ और जुनूनी तेवरों के लिए जाने जाते रहे। इंटर व
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इंजीनियरिंग में भर्ती हुए। मातृभूमि के लिए कुछ करने की इच्छा के कारण
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 उत्तराखंड राज्य आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हो गए। उत्तराखंड राज्य
और उसकी राजधानी गैरसैंण हो इसके लिए 11 जनवरी 1997 में शुरू हुए उनके
आमरण अनशनों का सफर आठ अगस्त 2004 को उनकी मौत के साथ ही खत्म हुआ। बाबा
की अस्थियां उनके पैतृक गांव बठोली से लाकर गैरसैंण के दूधातोली में 30
अगस्त 2004 को प्रतीक चिह्न के रूप में बनाए गए स्मारक में रखी गई हैं।
2 जुलाई से 8 अगस्त 1994 के दौरान बाबा कर्णप्रयाग बेनीताल में अनशनस्थल
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ले जाते समय रास्ते में मौत।
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Date: Thu, 1 Sep 2011 06:02:13 +0530 (IST)
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बाबा के अनशन का सफर बाबा का एक संकल्प मैं सार्वजनिक घोषणा करता हूं कि मां नंदा पखाण टोपरी उड्यार से अनशन में बैठ गया हूं। स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि माता नंदारानी मंदिर एवं पखाण के बीच छंपर में मैंने अपना धूना ज्वलित कर दिया है जो अनवरत रहेगा। मां नंदा रानी पखाण स्थिति टोपरी उडयार एवं छंपर दोनों को आंदोलन की ढाल के रूप में प्रयोग किया जाएगा।

- 2 जुलाई 2004 को बेनीताल बाबा मोहन उत्तराखंडी के शब्द।

‘1968 में मेरी बाबा के साथ शादी हुई। सेना की नौकरी छोड़ने के बाद वे राज्य निर्माण को संघर्ष करते रहे। हमारे पास संबंधित पर्याप्त प्रमाणपत्र न होने के कारण हमें विशेष जानकारी नहीं है।’

- कमला देवी नेगी, पत्नी बाबा मोहन उत्तराखंड़ी
उत्तराखंड के अनशन मोहन सिंह नेगी से बाबा मोहन उत्तराखंडी दो अक्तूबर 1994 को उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर दिल्ली जा रहे
सैकड़ों आंदोलनकारियों के साथ यूपी पुलिस और तथाकथित गुंडों के मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर किए गए जुल्म की चीत्कार से मोहन सिंह नेगी की रूह कांप गई। मौके पर ही आजीवन बाल, दाड़ी न काटने की शपथ लेते हुए मोहन सिंह नेगी बाबा मोहन उत्तराखंडी बनकर राज्य-गैरसैंण राजधानी की मांग को जुट गए।
राज्य निर्माण और गैरसैंण राजधानी के लिए कर दिए प्राण न्यौछावर पीढ़ियां प्रेरणा लेती रहेंगी बाबा मोहन उत्तराखंडी से  • विनय बहुगुणा कर्णप्रयाग। ‘अंधेरा मांगने आया रोशनी की भीख, हम अपना घर न जलाते तो और
क्या करते’ ये पंक्तियां उत्तराखंड राज्य और गैरसैंण राजधानी की मांग को लेकर 13 बार आमरण अनशन करने वाले बाबा मोहन उत्तराखंड़ी की शहादत और बलिदान को बयां करती हैं। राज्य निर्माण और जनसरोकारों के लिए संघर्ष का बीड़ा उठाने वाले बाबा आजीवन आदोलनकारियों, आमजन के लिए प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। वर्ष 1948 को पौड़ी जनपद के एकेश्वर विकासखंड के सतपुली तहसील के ग्राम बठोली में मनवर सिंह नेगी के घर पैदा हुए तीन बेटों में मझले मोहन सिंह
नेगी बचपन से ही कर्मठ और जुनूनी तेवरों के लिए जाने जाते रहे। इंटर व
आईटीआई की पढ़ाई के उपरांत वर्ष 1970 में वे बतौर क्लर्क बंगाल
इंजीनियरिंग में भर्ती हुए। मातृभूमि के लिए कुछ करने की इच्छा के कारण
सेना की नौकरी छोड़कर वह वर्ष 1994 में
 उत्तराखंड राज्य आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हो गए। उत्तराखंड राज्य
और उसकी राजधानी गैरसैंण हो इसके लिए 11 जनवरी 1997 में शुरू हुए उनके
आमरण अनशनों का सफर आठ अगस्त 2004 को उनकी मौत के साथ ही खत्म हुआ। बाबा
की अस्थियां उनके पैतृक गांव बठोली से लाकर गैरसैंण के दूधातोली में 30
अगस्त 2004 को प्रतीक चिह्न के रूप में बनाए गए स्मारक में रखी गई हैं।
2 जुलाई से 8 अगस्त 1994 के दौरान बाबा कर्णप्रयाग बेनीताल में अनशनस्थल
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•11 जनवरी 1997 को लैंसडाैन के देवीधार में राज्य निर्माण के लिए अनशन।
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•1 अगस्त 1998 से 10 दिन तक गुमखाल पौड़ी में अनशन।
•9 फरवरी से 5 मार्च 2001 तक नंदाठौंक गैरसैंण में अनशन।
•2 जुलाई से 4 अगस्त 2001 तक नंदाठौंक गैरसैंण में राजधानी के लिए अनशन।
•31 अगस्त 2001 को पौड़ी बचाओ आंदोलन के लिए अनशन।
•13 दिसंबर 2002 से फरवरी 2003 तक चॉदकोट गढ़ी पौड़ी में गैरसैंण राजधानी को अनशन।
•2 से 23 अगस्त 2003 तक कौनपुर गढ़ी थराली में अनशन।
•2 से 21 फरवरी 2004 तक कोदियाबगड़ गैरसैंण में अनशन।
•2 जुलाई से 8 अगस्त 2004 तक बेनीताल में अनशन। 9 अगस्त 2004 को अस्पताल
ले जाते समय रास्ते में मौत।

पंकज सिंह महर

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मेहता जी की आखिरी लाइन में लिखा है
"२ जुलाई से 8   अगस्त तक बैनिताल में  अनशन ..9  अगस्त को अस्पताल ले जाते वक़्त रास्ते में  देहांत "....
..पर कई जगह 8  अगस्त को श्रधांजलि दिवस के तोर पे लिखा गया है ...

हरीश भाई, इसमें कन्फ्यूजन पहाड़ी और अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब के कारण हुआ है, बाबा ने 2 जुलाई 2004 से अपना अनशन शुरु किया था और 8 अगस्त 2004 को प्रशासन ने उन्हें सायं 6 बजे जबरन उठवाकर अस्पताल में भर्ती करवाया था, रात के तीसरे पहर उनकी मृत्यु हो गई, पहाड़ों में दूसरा दिन सुबह चार बजे से शुरु होता है, जब कि अंग्रेजी कैलेडर में यह बारह बजे से शुरु हो जाता है, इसलिये बाबा की शहादत पहाड़ी हिसाब से ८ अगस्बात को हुई, जबकि अंग्रेजी कैलेडर के हिसाब से उनकी शहादत ९ अगस्त को हुई। चूंकि  बाबापहाड़ी थे, इसलिये उनकी मृत्यु की तिथि भी पहाड़ के हिसाब से 8 अगस्त 2004 ही मानी जायेगी।

Devbhoomi,Uttarakhand

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बाबा मोहन उत्तराखंडी को सत-सत  नमन

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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From - Vikas Dhyani

विकास ध्यानी - उत्तराखण्डी
about an hour ago
*बाबा मोहन उत्तराखंडी अमर रहे *
पहले राज्य आंदोलन के लिए और उसके बाद उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण के लिए १३ बार अनशन करते हुए आख़िरकार ९ अगस्त २००४ को बाबा मोहन उत्तराखंडी इस दुनिया को छोड़कर हमेशा के लिए चले गए,
राज्य निर्माण के लिए बाबा मोहन उत्तराखंडी ने वर्ष 1997 से आमरण अनशन से संघर्ष शुरू किया। 13 बार उन्होंने आमरण अनशन कर उन्होंने पहाड़ को एक करने में भी अहम भूमिका निभाई।
बाबा मोहन उत्तराखंडी का जन्म वर्ष 1948 में हुआ। पौड़ी जिले के एकेश्वर ब्लाक के बठोली गांव में मनवर सिंह नेगी के तीन बेटों में मझले मोहन इंटरमीडिएट एवं आईटीआई की पढ़ाई के बाद वर्ष 1970 में बंगाल इंजीनियरिंग में भर्ती हुए, लेकिन उनका सेना में मन नहीं लगा। वर्ष 1994 में नौकरी छोड़ वे राज्य आंदोलन में कूद गए। 2 अक्टूबर 1994 को रामपुर तिराहे में हुई घटना से उन्होंने आजीवन बाल, दाड़ी न काटने की शपथ ली। 11 जुलाई 1997 को राज्य व राजधानी गैरसैंण के लिए शुरू अनशन का सफर 8 अगस्त 2004 की रात्रि को मौत के साथ ही थमा।
बाबा मोहन उत्तराखंडी का अनशन
- 11 जनवरी 1997 को लैंसीडाउन क देवीधार मा राज्य निर्माण कुण अनशन।
16 अगस्त 1997 बटी 12 दिन तक सतपुली का नजीक माता सती मंदिर मा अनशन।
1 अगस्त 1998 बटी 10 दिन तक गुमखाल पौड़ी मा अनशन।
9 फरवरी बटी 5 मार्च 2001 तक नंदाठौंक गैरसैंण मा अनशन।
2 जुलाई बटी 4 अगस्त 2001 तक नंदाठौंक गैरसैंण मा राजधानी कुण अनशन।
31 अगस्त 2001 कुण पौड़ी बचाओ आंदोलन क दगडी अनशन।
13 दिसंबर 2002 बटी फरवरी 2003 तक चॉदकोट गढ़ी पौड़ी मा गैरसैंण राजधानी कुण अनशन।
2 अगस्त बटी 23 अगस्त 2003 तक कौनपुर गढ़ी थराली मा अनशन।
2 फरवरी बटी 21 फरवरी 2004 तक कोदियाबगड़ गैरसैंण मा अनशन।
2 जुलाई बटी 8 अगस्त 2004 तक बेनीताल मा अनशन।
आखिकार 9 अगस्त 2004कुन स्वर्ग सिधारीन ।
बाबा की इस शहादत के लिए हम नमन करते है,एक सच्चे सपूत थे वे उत्तराखंड के
लेकिन शर्म आती है अपने उत्तराखंड के उन भ्रष्ट नेताओ पर जिन्होंने पिछले १४ सालो में सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए उत्तराखंड पर राज किया है,क्योंकि उत्तराखंड राज्य तो मिला लेकिन सिर्फ नाम के लिए,
पहले जानते है बाबा मोहन उत्तराखंडी की प्रमुख मांगें
- उत्तराखंड की राजधानी चंद्रनगर गैरसैंण हो।
- मुजफ्फरनगर कांड के अपराधियों को सजा मिले।
- उत्तराखंड की शिक्षा नीति रोजगारपरक हो।
- युवाओं को रोजगार मिले।
- पर्वतीय क्षेत्र से पलायन रोकने को ठोस नीति बने।
अब आप बताइये इनमे से कोण सी मांग पर आप देखते हो की सरकार ने अमल किया है,
तो क्या आप चाहते है की जिस व्यक्ति ने हमारे लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करते हुए शहादत दे दी,उसको भूल जाएँ
और जो राज्य विरोधी है या जिन्होंने पिछले १४ सालो से यहाँ राज किया है उन्हें लूटने दे इस राज्य को,
एक बहुत बड़ी उम्मीद उत्तराखंड क्रांति दल से थी लेकिन ऐसा लगता है की कहीं न कहीं राजनीतिक स्वार्थ में आकर ये दल अपने मुद्दो से ही भटक गया,
जिस समय जरुरत थी उसको की इस राज्य की सत्ता संभाले उस टाइम उसने राजनीती की मलाई खानी बेहतर समझी
आज अगर सरकार श्रधांजलि देने का ढोंग करती है तो जरुरत नहीं है इसकी,अरे अगर सच्ची श्रधांजलि देनी है तो गैरसैण को स्थाई राजधानी घोषित करो और जो अन्य मांगे थी बाबा मोहन उत्तराखंडी की उन्हें पूरा करो अन्यथा मेरे हिसाब से तो हर वर्ष २ अक्टूबर को भी मुजफ्फर नगर काँड को याद करके ढोंग करते हो बस,सिर्फ अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए,
वैसे ये दल क्या कर सकते है उत्तराखंड के लिए ये शायद हम सब पिछले १४ सालो में समझ चुके है
दोस्तों हमें इस दलदल राजनीती से बहार आने की जरुरत है और एकजुट होकर गैरसैण के लिए लड़ना चाहिए,जब हम उत्तराखंड ले सकते है तो गैरसैण क्यों नहीं???
एक बार फिर से नमन और श्रधांजलि,उत्तराखंड के इस महान सपूत के लिए

 

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