Author Topic: Historical information of Uttarakhand,उत्तराखंड की ऐतिहासिक जानकारी  (Read 43400 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1

पौड़ी गढ़वाल

उत्तरांचल का एक जिला है ।जिले का मुख्यालय पौड़ी है । पौढ़ी गढ़वाल उत्तरांचल का एक प्रमुख जिला है। जो कि 5,440 स्क्वेयर मीटर के भौगोलिक दायरे मैं बसा है यह जिला एक गोले के रूप मैं बसा है जिसके उत्तर मैं चमोली, रुद्रप्रयाग, और टेहरी गढ़वाल है, दक्षिण मैं उधमसिंह नगर, पूर्व मैं अल्मोरा और नैनीताल और पश्चिम मैं देहरादून और हरिद्वार स्थित है। पौढ़ी हेडक्वार्टर है।

 हिमालय कि पर्वत श्रृंखलाएं इसकी सुन्दरता मैं चार चाँद लगते हैं और जंगल बड़े-बड़े पहाड़ एवं जंगल पौढी कि सुन्दरता को बहुत ही मनमोहक बनाते हैं।

संपूर्ण वर्ष मैं यहाँ का वातावरण बहुत ही सुहावना रहता है यहाँ की मुख्य नदियों मैं अलखनंदा और नायर प्रमुख हैं। पौढ़ी गढ़वाल की मुख्य बोली गढ़वाली है अन्य भाषा मैं हिन्दी और इंग्लिश भी यहाँ के लोग बखूबी बोलते हैं। यहाँ के लोक गीत, संगीत एवं नृत्य यहाँ की संस्कृति की संपूर्ण जगत मैं अपनी अमित चाप छोड़ती है।

 यहाँ की महिलाएं जब खेतों मई काम करती है या जंगलों मैं घास काटने जाती हैं तब अपने लोक गीतों को खूब गाती हैं इसी प्रकार अपने अराध्य देव को प्रसन्न करने के लिए ये लोक नृत्य करते हैं।

पौढ़ी गढ़वाल त्योंहारों मैं साल्टा महादेव का मेला, देवी का मेला, भौं मेला सुभनाथ का मेला और पटोरिया मेला प्रसिद्द हैं इसी प्रकार यहाँ के पर्यटन स्थल मैं कंडोलिया का शिव मन्दिर, बिनसर महादेव, मसूरी , खिर्सू, लाल टिब्बा, ताराकुण्ड, जल्प देवी मन्दिर प्रमुख हैं। यहाँ से नजदीक हवाई अड्डा जोली ग्रांट जो की पौढ़ी से 150-160 किमी की दुरी पर है रेलवे का नजदीक स्टेशन कोटद्वार है एवं सड़क मार्ग मैं यह ऋषिकेश, कोटद्वार एवं देहरादून से जुडा है।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
रुद्रप्रयाग का इतिहास

रुद्रप्रयाग  उत्तरांचल राज्य के रुद्रप्रयाग जिले में एक शहर तथा नगर पंचायत है। रुद्रप्रयाग अलकनंदा तथा मंदाकिनी नदियों का संगमस्थल है। यहाँ से अलकनंदा देवप्रयाग में जाकर भागीरथी से मिलती है तथा गंगा नदी का निर्माण करती है। प्रसिद्ध धर्मस्थल केदारनाथ धाम रुद्रप्रयाग से ८६ किलोमीटर दूर है।

भगवान शिव के नाम पर रूद्रप्रयाग का नाम रखा गया है। रूद्रप्रयाग अलकनंदा और मंदाकिनी नदी पर स्थित है। रूद्रप्रयाग श्रीनगर (गढ़वाल) से 34 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मंदाकिनी और अलखनंदा नदियों का संगम अपने आप में एक अनोखी खूबसूरती है। इन्‍हें देखकर ऐसा लगता है मानो दो बहनें आपस में एक दूसरे को गले लगा रहीं हो।

 ऐसा माना जाता है कि यहां संगीत उस्‍ताद नारद मुनि ने भगवान शिव की उपासना की थी और नारद जी को आर्शीवाद देने के लिए ही भगवान शिव ने रौद्र रूप में अवतार लिया था। यहां स्थित शिव और जगदम्‍बा मंदिर प्रमुख धार्मिक स्‍थानों में से है।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
कालीमठ :Almoda

यह अल्मोड़ा से ५ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। एक ओर हिमालय का रमणीय दृश्य दिखाई देता है और दूसरी ओर से अल्मोड़ा शहर की आकर्षक छवि मन को मोह लेती है।

 प्रकृतिप्रेमी, कला प्रेमी और पर्यटक इस स्थल पर घण्टों बैठकर प्रकृति का आनन्द लेते रहते हैं। गोरखों के समय राजपंडित ने मंत्र बल से लोहे की शलाकाओं को भ कर दिया था। लोहभ के पहाड़ी के रुप में इसे देखा जा सकता है।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
कैंची,Alomoda Uttarakhand



कैंची, भुवाली से ७ कि.मी. की दूरी पर भुवालीगाड के बायीं ओर स्थित है। नीम करौली बाबा को यह स्थान बहुत प्रिय था। प्राय: हर गर्मियों में वे यहीं आकर निवास करते थे। बाबा के भक्तों ने इस स्थान पर हनुमान का भव्य मन्दिर बनवाया। उस मन्दिर में हनुमान की मूर्ति के साथ-साथ अन्य देवताओं की मूर्तियाँ भी हैं। अब तो यहाँ पर बाबा नीम करौली की भी एक भव्य मूर्ति स्थापित कर दी गयी है।

यहाँ पर यात्रियों के ठहरने के लिए एक सुन्दर धर्मशाला भी है। यहाँ पर देश-विदेश के आये लोग प्रकृति का आनन्द लेते हैं।

कैंची मन्दिर में प्रतिवर्ष १५ जून को वार्षिक समारोह मानाया जाता है। उस दिन यहाँ बाबा के भक्तों की विशाल भीड़ लगी रहती है। नवरात्रों में यहाँ विशेष पूजन होता है। नीम करौली बाबा सिद्ध पुरुष थे।

 उनकी सिद्धियों के विषय में अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि बाबा पर हनुमान की विशेष कृपा थी। हनुमान के कारण ही उनकी ख्याति प्राप्त हुई थी। वे जहाँ जाते थे वहीं हनुमान मन्दिर बनवाते थे। लखनऊ का हनुमान मन्दिर भी उन्होंने ही बनवाया था। ऐसा कहा जाता है कि बाबा को 'हनुमान सिद्ध' था।

उनका नाम नीम करौली पड़ने के सम्बन्ध में एक कथा कही जाती है। बहुत पहले बाबा एक साधारण व्यक्ति थे। नीम करौली गाँव में रहकर हनुमान की साधना करते थे, एक बार उन्हें रेलगाड़ी में बैठने की इच्छा हुई।

नीम करौली के स्टेशन पर जैसे ही गाड़ी रुकी, बाबाजी रेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में जाकर बैठ गए। कंडक्टर गार्ड को जैसे ही ज्ञात हुआ कि बाबाजी बिना टिकट के बैठे हैं तो उन्होंने कहा कि बाबाजी, आप गाड़ी से उतर जाएँ। बाबाजी मुस्कुराते हुए गाड़ी के डिब्बे से उतरकर स्टेशन के सामने ही आसन जमाकर बैठ गए।

 उधर गार्ड ने सीटी बजाई, झंडी दिखाई और ड्राइवर ने गाड़ी चलाने का सारा उपक्रम किया, किन्तु गा#ी एक इंच भी आगे न बढ़ सकी। लोगों ने गार्ड से कहा कि कंडक्टर गार्ड ने बाबाजी से अभद्रता की है। इसीलिए उनके प्रभाव के कारण गाड़ी आगे नहीं सरक पा रही है।

परन्तु रेल कर्मचारियों ने बाबा को ढोंगी समझा। गाड़ी को चलाने के लिए कई कोशिशें की गयीं। कई इंजन और लगाए गए परन्तु गाड़ी टस से मस तक न हुई। अन्त में बाबा की शरण में जाकर कंडक्टर, गार्ड और ड्राइवर ने क्षमा माँगी।

 उन्हें आदर से प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बिठाया। जैसे ही बाबा डिब्बे में बैठे, वैसे ही गाड़ी चल पड़ी। तब से बाबा 'नीम करौली बाबा' पड़ा। तब से अपने चमत्कारों के कारण वे सब जगह विख्यात हो गये थे। अपनी मृत्यु की अन्तिम तिथि तक भी वे हनुमान के मन्दिरों को बनवाने का कार्य करते रहे और दु:खी व्यक्तियों की सेवा करते रहे।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
अल्मोड़ा के किले :

अल्मोड़ा नगर के पूर्वी छोर पर 'खगमरा' नामक किला है। कत्यूरी राजाओं ने इस नवीं शताब्दी में बनवाया था। दूसरा किला अल्मोड़ा नगर के मध्य में है। इस किले का नाम 'मल्लाताल' है। इसे कल्याणचन्द ने सन् १५६३ ई. में बनवाया था। कहते हैं, उन्होंने इस नगर का नाम आलमनगर रखा था।

 वहीं चम्पावत से अपनी राजधानी बदलकर यहाँ लाये थे। आजकल इस किले में अल्मोड़ा जिले के मुख्यालय के कार्यलय हैं। तीसरा किला अल्मोड़ा छावनी में है, इस लालमण्डी किला कहा जाता है। अंग्रेजों ने जब गोरखाओं को पराजित किया था तो इसी किले पर सन् १८१६ ई. में अपना झण्डा फहराया था।

अपनी खुशी प्रकट करने हेतु उन्होंने इस किले का नाम तत्कालीन गवर्नर जनरल के नाम पर - 'फोर्ट मायरा' रखा था। परन्तु यह किला 'लालमण्डी किला' के नाम से अदिक जाना जाता है। इस किले में अल्मोड़ा के अनेक स्थलों के भव्य दर्शन होते हैं।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
                 उत्तराखंड पर गौर्खाओं का राज
                 ===============


गढ़वाल पर बारह वर्षों तक गोरखाओं का दमन चला। अपने संस्मरण में मि. फ्रेजर लिखते हैं, “अपने शासन के प्रारंभ में पदासीन तथा महत्वपूर्ण व्यक्ति या तो गढ़वाल से बाहर निकाल दिये गए अथवा उन्हें मार दिया गया। उनके गांव जला दिए गए तथा पुराने घराने बर्बाद कर दिये गये।

उनके ओहदेदार दुर्दांत थे, उनका राजकीय आचरण कठोर था। यहां तक कि सुदूर क्षेत्रों में बलात्कार के कुकृत्य भी बहुतायात में हुए। सैनिकों ने बलपूर्वक महिलाओं से विवाह किए।”

प्रदुमन शाह के पुत्र सुदर्शन शाह ने अंग्रेज राज्य बरेली में शरण ली और अपना खोया राज्य प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उसने अंग्रेज सरकार को वचन दिया कि अगर वे उसका राज्य वापिस दिलवाने में सहायता करेंगे तो वह गढ़वाल उनके साथ आधा बांटने को तैयार है।

 दूसरी तरफ गोरखाओं ने अंग्रेजों के अधीन आती गंगा घाटी भर आक्रमण करना शुरू कर दिया। जब अंग्रेजों ने इस पर आपत्ति प्रकट की तो वे और भी दुस्साहस करने लगे।यह जाहिर था कि केवल युद्ध से ही गोरखा, बाज आ सकते हैं।

परिणाम स्वरूप 1815 ई. में कर्नल निकोलस के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने कुमाऊं तथा गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया तथा अल्मोड़ा में सितौली के पास निर्णायक युद्ध हुआ जो कि 25 अप्रैल 1815 ई. को सम्पूर्ण कुमाऊं क्षेत्र पर अंग्रेजों के अधिकार के साथ समाप्त हुआ।

इस युद्ध में केवल 211 व्यक्ति ही घायल अथवा मारे गए। सुदर्शन शाह को पुनः आधे गढ़वाल का राजा स्थापित कर दिया गया तथा आधा गढ़वाल 1815 ई. में अंग्रेजों के अधिकार में आ गया।

आदरणीय ई. गार्डनर कुमाऊं डिवीजन के प्रथम कमिश्नर 3 मई 1815 ई. को नियुक्त हुए। गोरखाओं का गोरख्यानी नाम से जाना जाने वाला बारह वर्षीय राक्षसीय साम्राज्य समाप्त हुआ।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
उत्तराखंड पर गोरों का राज

अक्तूबर 1815 में डब्ल्यू जी ट्रेल ने गढ़वाल तथा कुमाऊं कमिश्नर का पदभार संभाला। उनके पश्चात क्रमशः बैटन, बैफेट, हैनरी, रामसे, कर्नल फिशर, काम्बेट, पॉ इस डिवीजन के कमिश्नर आये तथा उन्होंने भूमि सुधारो, निपटारो, कर, डाक व तार विभाग, जन सेहत, कानून की पालना तथा क्षेत्रीय भाषाओं के प्रसार आदि जनहित कार्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।

अंग्रेजों के शासन के समय हरिद्वार से बद्रीनाथ और केदारनाथ तथा वहां से कुमाऊं के रामनगर क्षेत्र की तीर्थ यात्रा के लिये सड़क का निर्माण हुआ और मि. ट्रैल ने 1827-28 में इसका उदघाटन कर इस दुर्गम व शारीरिक कष्टों को आमंत्रित करते पथ को सुगम और आसान बनाया।

कुछ ही दशकों में गढ़वाल ने भारत में एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया तथा शूरवीर जातियों की धरती के रूप में अपनी पहचान बनाई। लैंडसडाउन नामक स्थान पर गढ़वाल सैनिकों की 'गढ़वाल राइफल्स' के नाम से दो रेजीमेंटस स्थापित की गईं। निःसंदेह आधुनिक शिक्षा तथा जागरूकता ने गढ़वालियों को भारत की मुख्यधारा में अपना योगदान देने में बहुत सहायता की।

उन्होंने आजादी के संघर्ष तथा अन्य सामाजिक आंदोलनों में भाग लिया। आजादी के पश्चात 1947 ई. में गढ़वाल उत्तर प्रदेश का एक जिला बना तथा 2001 में उत्तराखण्ड राज्य का जिला बना।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
उत्तराखंड,के लिए पांडवों का योगदान

पवित्र स्थानों के बारे में मार्गदर्शन एवं जानकारी प्राप्त करने के लिए पांडाओं या पुरोहितों को तीर्थयात्राओं पर ले जाने की परम्परा थी। महाभारत के अनुसार पांडवों ने अपनी तीर्थयात्रा के लिए लोमक ऋषि को मार्गदर्शक और पुरोहित के तौर पर रखा था।

गढ़वाल में देवप्रयाग के पांडाओं ने देशभर में बद्रीनाथ और केदारनाथ की तीर्थयात्रा का प्रचार प्रसार करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। वे अपने आपको आदि शंकराचार्य से जोड़कर देखते हैं। वे यह दावा करते हैं कि वे दक्षिणात्य ब्राह्मण हैं जो शंकराचार्य के साथ आए थे और जिन्हें भगवान बद्रीनाथ की पूजा करने का दायित्व दिया गया था। इसके अलावा पांडा एक सुशिक्षित समुदाय था।

 इनके पास श्रेष्ठ प्रबंधकीय कौशल हुआ करता था और ये महान प्रेरक हुआ करते थे। वे अच्छे प्रबंधक होते थे और सम्पूर्ण यात्रा के दौरान तीर्थयात्रियों के साथ रहते थे। वे देवताओं और देवियों की प्रतापी गाथाएं सुनाते थे और तीर्थों का महत्व बताते थे।

 वे भिन्न-भिन्न तीर्थों में यजमानों के लिए पूजा आराधना करते थे। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि पांडा उन सभी तीर्थ यात्रियों के चलते-फिरते डाटाबेस होते थे जिन्होंने बद्रीनाथ और केदारनाथ की यात्राएं की थीं। किसी भी तीर्थयात्री का जो सबसे पुराना रिकार्ड उपलब्ध है वह 1243 ईसवी का है। तीर्थयात्रा के दौरान पांडा प्रत्येक परिस्थिति में अपने यजमानों का ध्यान रखते थे।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
उत्तराखंड,के लिए हिमालय का महत्व

गढ़वाल उत्तर में अवस्थित है जो देवताओं के मार्ग में पड़ता है इसलिए, पुराणों में इसे उत्तराखंड कहा गया है। यहां खाने योग्य कंद-मूलों और फलों की भरमार है और यहां आश्रय के लिए असंख्य बड़ी-बड़ी गुफाएं हैं। साथ ही साथ, प्रकृति ने इसे अनुपम सुंदरता, रंग और आकृति की भव्य विविधता के साथ विभुषित किया है - जो सभी दैवी सर्जक द्वारा अत्यन्त सुंदर तरीके से व्यवस्थित किए गए हैं।

यहां हम महसूस करते हैं कि "देवता पत्थरों में शयन करते हैं, पेड़ पौधों में सांस लेते हैं, प्राणियों में विचरण करते हैं तथा मनुष्य में चेतन हो उठते हैं (राय बहादुर प्रतिराम द्वारा गढ़वाल एनसिएंट एंड मार्डन)

हिन्दू ब्रह्मविज्ञान के प्रधान अधिष्ठान तथा ज्ञान के केंद्र के रूप में ऊपरी गढ़वाल को बद्रिकाश्रम कहा जाता था जहां व्यास मुनि जैसे महान ऋषि ने वेदों एवं उपनिषदों को संकलित किया तथा पुराणों एवं महाभारत को लिखा जो हिन्दू ब्रह्मविज्ञान के सार हैं।

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
प्राचीन काल मैं कैसे होती थी चारधाम यात्रा


पदम पुराण के अनुसार ऋषियों  ने उत्तराखंड को प्रकृति के सबसे वैभवशाली मंदिर के तौर पर पाया जो बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के विख्यात तीर्थ मंदिरों के साथ-साथ आध्यात्मिक मूल्यों की उच्चमूल्य निधि है। सदियों से ये पवित्र स्थान अत्यन्त प्रतिष्ठित धर्म के बंधन से तमूचे देश से जुड़े हुए हैं और जिसने इस भूमि में अपना स्वाभाविक स्थान पाया है।

अनन्त काल से गढ़वाल की पर्वत श्रेणियों ने समस्त भारत के भांति-भांति के धर्मपरायण हिन्दू तीर्थयात्रियों को आकर्षित किया है। पहले न तो सड़कें थी और न ही पुल, यहां तक की तीर्थयात्रियों के लिए विश्राम करने के स्थान भी नहीं थे। परिणामतः इन स्थानों की यात्रा अत्यन्त खतरनाक मानी जाती थी

और केवल अत्यन्त वृद्ध व्यक्ति ही इन स्थानों का भ्रमण करने आते थे जिससे कि वे इस स्वर्गिक भूमि में अपने मरणशील देहों का त्याग कर सकें। सनातन हिन्दुओं का यह विश्वास रहा है कि जितना अधिक कष्ट होगा उतने ही श्रेष्ठ तरीके से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा।

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22