उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास
आलेख : भीष्म कुकरेती
प्रस्तर युग में उत्तराखंड में कृषि व भोजन (Food and Agriculture in Stone Age)
आदि प्रस्तर युग में भोज्य पदार्थ भोजन विधि
प्रस्तर युग के उपकरणों से पता चलता है कि हिम युग अंत के पश्चात उत्तराखंड में मानव विचरण शुरू हो गया था । गंगाद्वार (हरिद्वार ) के समीप आदि प्रस्तर युग के फ्लेक , स्क्रैपर्स , चौप्र्स आदि के निसान मिले हैं । यह सिद्ध होता है कि सोन -मानव टोली हिमालय की कम ऊँची पहाड़ियों (जम्मू से नेपाल तक ) विचरण करती थीं ।
इस युग में मांस , कंद -मूल -फल भोज्य पदार्थ थे
अनुमान है कि सोन मानव युग में मनुष्य ने शिला -चौपर्स या गंडासा जैसा उपकरण बनाना सीख लिया था । वर्तमान गंडासे जैसा शिला उपकरण से मांस , कंद -मूल -फल काटा जा सकता था । मांस या कंद-मूल की छोटी छोटी बोटियाँ काटने के लिए शिला गंडासे पर दांत नुमा शिला दराती भी थीं ।
आखेट हेतु इस युग का मानव एक जगह नही रुकता था । उत्तराखंड में सोन मानव कौन से पशुओं और वनस्पतियाँ को खाता था यह पूर्णत: नही पता है ।
डा के . पी . नौटियाल , सकलानी व विनोद नौटियाल का लेख
मध्य प्रस्तर युग में भोज्य पदार्थ भोजन विधि
१५००० साल पहले के इस युग में कास्ट , अस्थि व पत्थर उपकरण प्रयोग में थे और इन उपकरणों में निखार आ गया था । अब ये उपकरण अधिक हल्के, कलापूर्ण व सुडौल बनने लगे थे जो कि उस समय के भोजन खाने की विधि पर प्रकाश डालते हैं ।
चकमक पत्थर की समझ से मानव को आग के लाभ मिलने लगे थे । यही समय था जब मांस को भुनकर खाने की शुरुवात हुयी ।
उत्तराखंड में प्रस्तर छुरिका -संस्कृति और मानव भोजन
इतिहास कार डा शिव प्रसाद डबराल लिखते हैं कि हरिद्वार के पास डा यज्ञ दत्त शर्मा को प्रस्तर उपकरनो के साथ ऐसी शिलाएं भी मिली जो उत्तराखंड में प्रस्तर छुरिका -संस्कृति होने के संकेत देते हैं । इस संस्कृति युग में भी आखेट व पशु भक्षण आदि मानव भोजन था । गुफाओं व पर्ण कुटीरों में रहने का अर्थ है कि मनुष्य भोजन भंडारीकरण भी करता होगा ।
इस समय का मानव आखेट संस्कृति से आगे नही बढ़ पाया था ।
प्रस्तर छुरिका -संस्कृति में यहाँ के मनुष्य का भोजन वनैले गाय , बैल , भैस , घोड़े , भेद -बकरियां , हिरन चूहे , मछली व घड़ियाल का मांस था ।
कंद मूल फल जो पाच जाता हो होगा ।
उत्तराखंड में उत्तर प्रस्तर संस्कृति और मानव भोजन
उत्तर प्रस्तर संस्कृति याने १५०००-से ५५०० वर्ष पूर्व के संस्कृति में मानव सभ्यता में कई परिवर्तन आये ।
उत्तर प्रस्तर संस्कृति में पशु पालन का श्रीगणेश
उत्तर प्रस्तर संस्कृति में पशु पक्षियों का पालन शुरू हुआ । कुत्ते को पालतू बनाने का कार्य इसी युग में हुआ इसी युग में पशु पालन विकास उत्तराखंड में हुआ । डा मजूमदार व पुसलकर का मानना है कि उत्तराखंड भूभाग उन थोड़े से भूभागों में से एक है जन्होने जंगली जानवरों को पालतू बनाया ।
शिवालिक की पहाड़ियों व मैदानी हिस्सों में तोते , चकोर आदि पक्षियों को पालने के प्रक्रिया भी शुरू हुयी ।
कृषि प्राम्भ
उत्तराखंड में इसी युग में कृषि शुरू हुई ।
गेंहू , जाऊ, चना, फाफड़ , ओगल , कोदू , उड़द व मूंग की जंगली जाती पाए जाने से इतिहास कार सिद्ध करते हैं कि यहाँ इस युग में कृषि करते थे और आग में भूनते थे । जंगली प्याज , बथुआ, हल्दी , कचालू , चंचीडा, नाशपाती , अंजीर , अंगूर , केला, दाडिम , चोलू,आडू आदि के जंगली प्रजातियाँ भी संकेत देती है की यहाँ इन वनस्पतियों का प्रयोग भली भांति भोज्य पदार्थ क एरुप में होता था (मजूमदार ) ।
उस समय में भी औरतें कृषि कार्य में लिप होती थीं । औरतें बाढ़ की गीली मिटटी में बीज बिखेरकर कृषि करती थीं । औरतें गुफा में आग बचाने का भी कम संभालतीं थीं । औरतें पत्तों व मिटटी के पात्र बनाती थीं . नारी ही हड्डी , पत्थर या लकड़ी की कुदाल से कंद मूल खोद कर लती थी । पुरुषों का कम उस समय आखेट, अन्य वस्तियों से अपनी वस्ती के रक्षा करना व अन्य वस्तियों पर आक्रमण में संलग्न रहता था ।
शेष -- उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास भाग … २ में
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