Author Topic: History of Haridwar , Uttrakhnad ; हरिद्वार उत्तराखंड का इतिहास  (Read 101693 times)

Bhishma Kukreti

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         Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in Haridwar, Bijnor, Saharanpur

                          गंगा जी की महत्ता और हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर में कोल , मुंड , शवर जाति

                      Proto- Australoid Race in Context History of Haridwar -5

                                          कोल , मुंड , शवर जाति और हरिद्वार का इतिहास -5
                                   
                                Racial Elements in Haridwar Population of Prehistoric Period-8
                                  हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर की नृशस शाखाएं -एक ऐतिहासिक विवेचन -8
 
                                       हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग -17   

                                                      History of Haridwar Part  --17 
                             
                           
                                                   इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती

                                                     गंगा का महात्म्य
 गंगा का महत्व भी कोल , मुंड , शवर जाति ने समझा और इसी जाति ने संभवतया गंगा जी को नदी , गंगा जी को पुनीत नदी का नाम दिया।  संभवतया गंगा जी के पानी के गुणों को कोल , मुंड , शवर जातिने पहचाना और इसी पुनीत नदी माना।
भारत से कोल , मुंड , शवर जाति दक्षिण पूर्व की और चली लंका , वर्मा , श्याम , हिन्दचीन , मलाया , दक्षिण चीन  महासागरीय द्वीपों म इ पंहुची। तो भी गंगा जी के पवित्रता को नही बिसरी।
लंका  बालीद्वीप में महाबलीगंगा व दक्षिणपूर्व  एशिया के नदियों के आगे जुड़े कौंग और कियांग प्रत्यय को गंगा जी का रूपांतर माना जा सकता है।
वेदों में गंगा जी का नाम केवल एक बार आया है किन्तु महाभारत व परवर्ती साहित्य पुराणो में गंगा को महत्व दिया गया है। वेद के आर्य गंगा को नही समझ सके थे कोल , मुंड , शवर जाति  के सम्पर्क में आने के पश्चात गंगा के महत्व को समझे और तभी महाभारत में गंगा महिमा का बखान हुआ है (मजूमदार और पुसलकर ) ।
केवल गंगा ही नही भारत की अन्य नदियों का नाम भी कोल , मुंड , शवर जाति  दिया और विद्वानो की धारणा है कि नदी नामान्त शब्द 'दा' अथवा 'ता ' जैसे नरमदा , शारदा , केनदा, द -सान ; तिसता, प्रणिता  और इसी तरह छोटी नदियों के अंत में गाड , गड्ड , खड्ड शब्द भी कोल , मुंड , शवर जाति के दिए हैं (कनिंघम , आर्कियोलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट ) ।

    संभवतया गंगाद्वार (हरिद्वार ) का महत्व भी कोल , मुंड , शवर जाति ने पहचाना होगा और कालांतर में गंगाद्वार धार्मिक स्थान में परिर्तित हुआ।


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Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India 29  /11/2014

History of Haridwar to be continued in  हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग 18         
 

(The History of  Haridwar write up is aimed for general readers)

 

Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Kankhal, Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Har ki Paidi Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Jwalapur Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Telpura Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Sakrauda Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Bhagwanpur Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Roorkee, Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Jhabarera Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Manglaur Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Laksar, Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Sultanpur,  Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Pathri Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Landhaur Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Bahdarabad, Uttarakhand ; Haridwar; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Narsan Haridwar, Uttarakhand ; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Bijnor; Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Nazibabad , Importance of Ganga Ji and Proto- Australoid Race Culture in History of Saharanpur

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Bhishma Kukreti

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                          Palaeo- Mongoloid Race in Haridwar History Context

                            हरिद्वार के इतिहास संदर्भ में मंगलवंशी किरात

                     Racial Elements in Haridwar Population of Prehistoric Period-9
                                  हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर की नृशस शाखाएं -एक ऐतिहासिक विवेचन -9
 
                                       हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग -18   

                                                      History of Haridwar Part  --18 
                                                         
                                                   इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती

                    जब कोल , मुंड , शवर जातिहिमालय के वनों , शिवालिक वनों में आखेट आदि वृति से जीवन विता रही थी तो पूर्व से आसाम होती हुई मंगोल जाति ने हिमालय क्षेत्र में प्रवेश किया और पश्चिम की ओर बढ़ना प्रारम्भ किया। धीरे धीरे यह जाति कोल , मुंड , शवर जातिको जंगलों में धकेलती हई हिमालय की श्रेणियों में आसाम से स्पीति , लाहुल , लद्दाख तख फ़ैल गयी।
प्राचीन इतिहास में इस जाति को कीर , किन्नर , किम्पुरुष , आदि नामो से पुकारा गया है।  किरात  कीर जाति का दूसरा नाम चिर भी था जिससे चिरायता  चिल -आत या चिलात शब्द भी रचे गए हैं।
         हिमालय के दक्षिण में तराई में किर जाति के तिर , मीड़ व गिर रूप मिलते हैं  यह जाति थारु नाम से जानी जाती है। देहरादून भाभर /तराई में मिर अब मिहिर कहलाते हैं तो यमुना से पश्चिम की ओर  जम्मू तक गिर अब गिरत या घिरत कहलाते हैं।  गढ़वाल का भाभर , बिजनौर का भाभर , हरिद्वार का भाभर , देहरादून के भाभर में यह जाति मिलती थी। हरिद्वार के जनगणना में अब थारु जाति नही मिलती किन्तु हरिद्वार से सटे जिले देहरादून में मिलते हैं। थारु बिजनौर में निवास करते हैं। इतिहासकार मजूमदार ने थारु को मंगलवंशी कहा है।

                                   मंगोलवंशियों का भारत में आगमन

  वैदिक साहित्य में किरात व किलात दोनों शब्द मिलते हैं।
  इतिहासकारों ने मोहन जो दाड़ो , और वर्मा , मलाया , हिन्दचीन आदि के पाषाण काल खुदाई से यह अंदाज लगाया कि मंगोल जाति का आगमन भारत मे 2600 -2800 BC से पहले हो चुका था।

                                          पर्वताश्रयी
  किरात जाति का प्रसार मुख्यतया हिमालय की पहाड़ियों में हुआ। आसाम , भूटान , सिक्किम , में किरात जाति का बाहुल्य है।
वैदिक साहित्य में किरात जाति को गुफाओं में रहने वाली जाति कहा गया है।  आयुर्वेद में इस जाति के लोग वनऔषधि खोदने व इकट्ठा करने वाली जाति रूप मे उल्लेख मिलता है।  शतपथ व अन्य ब्राह्मण साहित्य में किलात का नाम प्रयोग हुआ है। कई पुराणो में किरात जाति का कई बार उल्लेख हुआ है (डा डबराल , उखण्ड का इतिहास -2 पृष्ठ 175) .

                            मुखाकृति व शारीरिक विन्यास


 चपटी मुखाकृति , चपटा माथा  ,छोटी -चिपकी नाक , दाढ़ी मूछों में कम बाल , पीला से गेंहुआ रंग , नाटा आकार किरात जाति की विशेषतायें हैं।



मंगलवंशी किरात का अन्य वर्णन अगले अध्याय में .......

Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India 1/122014

History of Haridwar to be continued in  हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग 19         
 

(The History of  Haridwar write up is aimed for general readers)

Palaeo- Mongoloid Race in History of Kankhal, Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Har ki Paidi Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Jwalapur Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in  History of Telpura Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Sakrauda Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Bhagwanpur Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Roorkee, Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Jhabarera Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Manglaur Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Laksar, Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Sultanpur,  Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Pathri Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Landhaur Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Bahdarabad, Uttarakhand ; Haridwar; Palaeo- Mongoloid Race in History of Narsan Haridwar, Uttarakhand ; Palaeo- Mongoloid Race in History of Bijnor; Palaeo- Mongoloid Race in History of Nazibabad; Palaeo- Mongoloid Race in History of Saharanpur

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                          Contact of Palaeo- Mongoloid Race with Proto- Australoid Race in Haridwar History Context

                            हरिद्वार के इतिहास संदर्भ में मंगलवंशी किरात जाति का कोल  जाति से सम्पर्क

                     Racial Elements in Haridwar Population of Prehistoric Period-10
                                  हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर की नृशस शाखाएं -एक ऐतिहासिक विवेचन -10
 
                                       हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग -19   

                                                      History of Haridwar Part  --19 
                             
                           
                                                   इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती
       किरात जाति के प्रसार से हिमालय की ढालों पर बसी कोल , मुंड , शवर जाति को हिमालय की दुर्गम घाटियों /पहाड़ियों में बसना पड़ा।  शेष किरात जाति के सेवक बन कर रहने लगे। कई शताब्दियों पश्चात जब दरद व खस जाति ने शिवालिक व हिमालयी पहाड़ियों पर कब्जा  शुरू किया तो किरात जाति हिमालय की पहाड़ियों में उसी तरह सिकुड़ गयी जैसे कोल , मुंड , शवर जाति सिकुड़ी।
 हिमालय की श्रेणियों पर वर्तमान किरात जाति के बंशजों के शारीरिक बनावट से पता चलता है की किरात जाति ने हिमालय की ढालों पर बसे कोल , मुंड , शवर जाति से यौन संंबध स्थापित किये और एक नए मानव शारीरिक विन्यास को जन्म दिया।
  गढ़वाल के कई तिब्बत सीमावर्ती  हिस्सों में भाषा अनुशंधानकर्ता कहते हैं कि कुछ बोलियों मे कोल , मुंड , शवर जाति भाषाई विशेषता मिलती हैं।
 जहां तक हरिद्वार का प्रश्न है शायद किरात जाति आई ही नही और यदि आई भी तो अधिक दिनों तख गढ़वाल भाभर , हरिद्वार तराई भाभर व बिजनौर भाभर में नही टिक सकी। भाभर , बिजनौर और हरिद्वार में यदि किरात जाति  बसी भी हो तो दरद व खस जाति ने इन्हे सदूर हिमालयी क्षेत्र में खदेड़ दिया।
                     भाभर में किरात ?
महाभारत में किम्नर या किम्पुरुष उल्लेख है।  शायद ये किराटवंशी पहले भाभर में भी रहे होंगे किन्तु अंत में तिब्बत सीमा की और चले गए।

Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India 2/122014

History of Haridwar to be continued in  हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग 20         
 

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                          Mongoloid Race in Haridwar, Bijnor, Garhwal and Dehradun

                                गढ़वाल , हरिद्वार व बिजनौर भाभर -तराई के तिर , तीर और किरात

                      Racial Elements in Haridwar Population of Prehistoric Period-11
                                  हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर की नृशस शाखाएं -एक ऐतिहासिक विवेचन -11
 
                                       हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग -20   

                                                      History of Haridwar Part  --20 
                             
                           
                                                   इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती


 हिमालय के उत्तरी ढालों पर किर , चिर , चिल नाम से मिलने वाली किरात जाति दक्षिण गढ़वाल  शाखा भाभर -तराई क्षेत्रों में फैली है। तिरुहित -मिथला , नेपाल , नैनीताल , उत्तरी उत्तरप्रदेश , बिजनौर , गढ़वाल , हरिद्वार के भाभर , तराई क्षेत्र में फैली है , तिर  (थारु ); मिर (मिहिर ) तथा गिर (गिरथ , घिरत ) जाति के नाम से प्रसिद्ध थीं।
  भाभर क्षेत्र में मछर व अन्य कठिनाईयों के कारण लोग कम बसते थे किन्तु किरातवंशी थारु जाति के लोग यहां सदियों से बसे थे। बुक्सा जाति भाभर , बिजनौर , हरिद्वार व देहरादून में मिलती हैं हैं। इसी तरह मिहिर गिर भी यहां आज भी विद्यमान हैं।




Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India 3/122014

History of Haridwar to be continued in  हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग 21         
 

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                                 Paleo- Mediterranean Race in Haridwar , Bijnor History Context
                                      हरिद्वार , बिजनौर इतिहास संदर्भ में रोमसागरीय जाति

                         Racial Elements in Haridwar Population of Prehistoric Period-12
                                  हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर की नृशस शाखाएं -एक ऐतिहासिक विवेचन -12
 
                                       हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग -21   

                                                      History of Haridwar Part  --21 
                             
                           
                                                   इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती


  डा  डी एन मजूमदार जैसे इतिहासकार ने  उत्तराखंड व हिमाचल में रोमसागरीय , द्रविड़ , नॉर्डिक  या आर्य रक्त  का जिक्र नहीं किया है। किन्तु बहुत से इतिहासकार मानते हैं कि रोमसागर की आदिम शाखा (प्राच्य रोमसागरीय नृशंस शाखा ) भारत  में आ गयी थी।  कुछ इतिहासकारों ने भ्रान्तिवास सेमेटिक या यहूदी नाम दिया।
कुछ विद्वानो की धारणा है कि प्राचीन काल में पश्चमी व मध्य हिमालय में जम्मू से नेपाल तक प्राच्य रोमसागरीय नृशाखा का प्रसार प्रचुर मात्रा में हुआ था। कुछ जातियों में आकृति मिलती हैं किन्तु हरिद्वार , बिजनौर सहित उत्तराखंड में इस जाति का रक्त प्रभाव कम ही मिलता है।  यदा कड़ा हरिजनो  की कुछ मानवों में यह रक्त मिला था।

                                              द्रविड़ रोमसागरीय जाति
                   
इस नृशाखा के लोगों की ऊंचाई कुछ अधिक होती है व रंग में उतने काले नही होते हैं । उत्तर प्रदेश , पंजाब , हरियाणा , उत्तरप्रदेश के गंगा मैंदान में द्रविड़ जाति अधिक मात्रा में मिलती है। द्रविड़ जाति सिंध -पंजाब से लेकर बंगाल तक फैली हुयी थी।
 निश्चय ही हरिद्वार , सहारनपुर , बिजनौर के संदर्भ में द्रविड़ व कोल जाति साथ साथ बसी थी।  कोल प्रजा पर द्रविड़ शासन था। चिरकाल में संग संग रहने के कारण दोनों जातियां एक दूसरे के साथ एकसार हो गयीं।
  वैदिक संस्कृत व अन्य प्राकृत भाषाओं , बोलियों पर द्रविड़ भाषा का समुचित प्रभाव मिलता है।
  महाकाल;  भैरव ; चण्डिका पूजा संस्कृति , लिंगबास , पितर पूजा के लिए पत्थर रखना, पितृ कुड़ी बनाना आदि संस्कृति की देन है। गढ़वाली के दसियों शब्द व गढ़वाल के गाँवों के नाम सिद्ध करते हैं कि पहाड़ी उत्तराखंड , भाभर गढ़वाल , हरिद्वार , बिजनौर में द्रविड़ संस्कृति फली व फूली।
                               प्राचीन द्रविड़ संस्कृति
 द्रविड़ जनो पर राजा (मन्नण ) शासन करते थे।   राजा कोट /किले  (कोट्टइ ) में रहते थे।  शाशन छोटे छोटे जिलों (नाडु ) में बंटा था। बंदीजन (पुलवन ) उत्सवों (तिरविज ) पर गीत (चेयुल ) गाते थे।  तालपत्र पर लेख लिखे जाते थे।
 आदि द्रविड़ ईश्वर पर विश्वास करते थे , मंदिरों में प्रार्थना करते थे।  ग्रहों  ग्यानी थे। मानव नगर व ग्रामों  निवास करते थे। धातुओं से परिचित थे।
            द्रविड़ जाति  हिन्दुजाति संस्कृति में अहम योगदान है।  हिन्दू संस्कृति निर्माण में द्रविड़ संस्कृति का वेद संस्कृति से अधिक योगदान है।  हिन्दुओं की कई पुराण कथाएँ द्रविड़ संस्कृति की देन है।  कोल जाति ने लिंग पूजा शुरू की तो ध्यानमग्न विरुपाक्ष , पशुपति , उर्ध्व लिंग द्रविड़ संस्कृति की देन है। आर्य जाति (वैदिक ) जाति ने कई द्रविड़ देवी देवताओं को अपनाया जैसे हनुमंत (अण मंति ) ।





Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India 5/122014

History of Haridwar to be continued in  हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग 22         
 

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Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Kankhal, Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Har ki Paidi Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Jwalapur Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Telpura Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Sakrauda Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Bhagwanpur Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Roorkee, Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Jhabarera Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Manglaur Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Laksar; Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Sultanpur,  Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Pathri Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Landhaur Haridwar, Uttarakhand ; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Bahdarabad, Uttarakhand ; Haridwar; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Narsan Haridwar, Uttarakhand ;History of Bijnor; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Nazibabad; Paleo- Mediterranean/ Dravid  Race in context History of Saharanpur

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                            Armenoid Race in  Prehistoric Period of Haridwar , Bijnor History
                                हरिद्वार , बिजनौर के इतिहास संदर्भ में दरदादि जाति

                    Racial Elements in Haridwar, Bijnor, Saharanpur  Population of Prehistoric Period-13
                                  हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर की नृशस शाखाएं -एक ऐतिहासिक विवेचन -13
 
                                       हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग -22   

                                                      History of Haridwar Part  --22 
                             
                           
                                                   इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती
 महाभारत में हिमालय के उत्तर पश्चमी भाग में बाह्वीक के निकटवर्ती क्षेत्र को दरद देश माना गया है (आदि पर्व ६७/५८ )।. पुराणो में दरद जाति को काम्बोज व बर्बर जातियों के मध्य रखा गया है। कश्मीर के उत्तर भाग में आज भी दरद पुरी  है। 
शायद इस जाति प्रसार अवश्य हुआ किन्तु शक जाति के साथ मिश्रण से इस जाति की अपनी विशिष्टता समाप्त हो गयी होगी।
                           दरद भाषा का प्रभाव
अफगानिस्तान  तीर नदी की उपत्यका की भाषा पर दरद भाषा का साफ़ साफ़ प्रभाव है।  पंजाबी , लहडी , सिंधी , ब्रज , पहाड़ी बोलियों (गढ़वाली -कुमाउनी समेत ) पर दरद भाषा का प्रभाव है। इससे साफ़ है कि दरद Armenoid जाति गढ़वाल , कुमाऊं , हरिद्वार और बिजनौर
सहारनपुर में भी रहीं हैं।
  महाभारत में खस व दरद जाति का अलग अस्तित्व का उल्लेख है।
दरद जाति कच्चा मांश खाती थी (महाभारत , वनपर्व , ११७/ ११,१२ ) और उत्तराखंड में कच्चे मांश की कछबोली खाने की  भी सांस्कृतिक प्रथा विद्यमान है।

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History of Haridwar to be continued in  हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग 23         
 

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Bhishma Kukreti

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                      Alpanoid Race in Context History of Haridwar, Bijnor  and Saharanpur
             
                           हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर इतिहास संदर्भ में खश जाति


               Racial Elements in Haridwar, Bijnor, Saharanpur  Population of Prehistoric Period-14
                                  हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर की नृशस शाखाएं -एक ऐतिहासिक विवेचन -14
 
                                       हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग -23   

                                                      History of Haridwar Part  --23 
                             
                           
                                                   इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती
  खश /खस जाति (Alpanoid Race) पश्चमी -स्थूलकपाल नृशाखा )Bra -Chychephals )  के तहत एक नृशाखा है।
खश जाति का आगमन भारत में मोहनजोदाड़ो या आर्य संस्कृति से पहले हो चुका।   याने खश /कस्सी जाति जाग्रौस पहाड़ियों से निकलकर ईसा पूर्व तीन हजार साल पहले भारत आ चुके थे।
                                   खश जाति  की दो शाखाएं
  ईरान अफ़ग़ानिस्तान  पठार से खश जाति की एक शाखा पूर्व की ओर बढ़कर हिमालय की ढालों पर छ गयी। यह शाखा कश्मीर से हिमाचल , उत्तराखंड से होकर नेपाल तक फ़ैल गयी।
दूसरी शाखा पंजाब के रास्ते गंगा के मैदान से होकर गंगा डेल्टा तक पंहुच गयी।
                               खश जाति का शारीरिक विन्यास
 अपेक्षाकृत ऊंचा आकार ,  सीधी -लम्बी नाक , चौड़ी छाती , गेहूंवा -गोरा रंग , मूछों व दाढ़ी में प्रचुर बाल , हृष्ट -पुष्ट शरीर खश जाति की विशेषता थी। आर्य जाति के समक्ष होने से खश जाति की पहचान मुश्किल हो जाती है।

                            प्राचीन इतिहास में खश जाति
 प्राचीन साहित्य में दोनों मैदानी व पर्वतीय खश जाति को एक ही जाति माना गया है इस जाति का नाम काशि या कुश भी माना गया है और यह जाती उत्तरप्रदेश , बिहार , मध्य प्रदेश  गुजरात तक फैली थी।
 महाभारत में  काशी व अपर काशी दो जनपदों का उल्लेख हुआ है (भीष्म पर्व ९/४२ ). काशी/कुश  नाम से जुड़े  कई स्थानो के नाम महाभारत में मिलते हैं। द्रोणपर्व व उद्योगपर्व से विदित होता है कि कुरुक्षेत्र युद्ध में दुर्योधन की ओर से अनेक दिशाओं से आकर कई खश राजा व खश सेना लड़े थे । महाभारत अध्ययन से पता चलता है कि धृतराष्ट्र , पाण्डु व विदुर खश संस्कृति से प्रभावित थे।

                     उत्तराखंड , हरिद्वार , बिजनौर , सहारनपुर में खश जाति आगमन

यह निश्चय पूर्वक नही कहा जा सकता कि उत्तराखंड की पहाड़ियों , भाभर , बिजनौर , हरिद्वार व सहारनपुर में खश जाति ने कब व कैसे प्रवेश किया।  यह बतलाना भी कठिन है कि क्या पहाड़ी खश व मैदानी खश एकी समय में आये।  जो भी हो किन्तु यह तय है कि खश बिजनौर , हरिद्वार , सहारनपुर में इसाकल से दो ढाई हजार साल पहले और हड़प्पा संस्कृति से हजार साल पहले आ पंहुचे थे।
खश जाती के शब्द उत्तराखंड , नेपाल , हिमाचल भाषाओं में मिलने से  संकेत मिलते हैं कि खश जाति ने बिजनौर , हरिद्वार और सहारनपुर में अपने पैर पसारे थे।



Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India , 7/122014
History of Haridwar to be continued in  हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग 24         
 

(The History of  Haridwar, Bijnor , Saharanpur write up is aimed for general readers)

 

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                                  Dinaric Race in Context of History of Haridwar, Bijnor and Saharanpur Region

                                  हरिद्वार इतिहास संदर्भ में शकादि जाति
                           

                Racial Elements in Haridwar, Bijnor, Saharanpur  Population of Prehistoric Period-15
                                  हरिद्वार,  बिजनौर , सहारनपुर की नृशस शाखाएं -एक ऐतिहासिक विवेचन -15
 
                                       हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग -24   

                                                      History of Haridwar Part  --24 
                             
                           
                                                   इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती
 प्राचीन साहित्य में शक नाम का प्रयोग विदेशी गोरी जाति का मिलता है जो यवन (यूनानी ) और आर्य जाति से भिन्न थी।  साइथ जाति का उल्लेख 750 BC  में प्राचीन उल्लेख मिलता है। उस समय यह जाति कोलसागर  उत्तर में मिलती थी।
शक जाति के लोग ईरान के पठारों के उत्तर में तथा दोनों तुर्किस्तानों में घूमती -फिरती रहती थी।
साइथ व शक जाति एक ही वर्ग में आती हैं।
                                   पहचान

शकादि जाति अश्वारोही , पशुचारक व आयुध जीवी थे। अपनी कमर में खुंकरी लेकर चलते थे और चमड़े के जूतों में तलवार का निचला शिरा खूँसकर  कर चलते थे। विक्रम संवत से पहले उतरी सीमान्त में कोई शक -यवन जाति आ बसी थी। इसीलिए पतंजलि शक -यवन जाति में शामिल की थी। 
कनिंघम का मत था कि उत्तराखंड में मौर्य का अंतिम नरेश था को उत्तराखंड नरेश शकादित्य ने मारा। संभवतः  उत्तराखंड , शिवालिक क्षेत्र हरिद्वार , बिजनौर व सहारनपुर में शक जाति आ बसी थी। शक जाति का शारीरिक विन्यास खस जाति से मिलता था।

                                शक संस्कृति

शक जाति भी प्राचीन मिश्री सभ्यता के समान अपने मृतकों की समाधि में विलीन करते थे व साथ में मृतक के लिए आवश्यक सामग्री भी रखते थे ।  उत्तरी गढ़वाल , हिमाचल , लद्दाख , लेहु, मध्य तिब्बत  में प्राचीन समाधियाँ मिली हैं जो शक समाधियों से मेल खाती हैं।
शक जाति सूर्य उपासक थे और उत्तराखंड में प्राचीन सूर्य मंदिर मिलने से साबित होता है कि हिमाचल , उत्तराखंड  शक संस्कृति फली थी।  चूँकि सहारनपुर, हरिद्वार व बिजनौर में मुस्लिम आक्रान्ताओं ने मंदिर तोड़े थे तो इन स्थानो में प्राचीन मंदिरों  अवशेष भी कम ही मिलते हैं। किन्तु कहा जा सकता कि यदि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में शक जाति बसी थी तो अवश्य ही बिजनौर , सहारनपुर व हरिद्वार में भी शक जाति बसी होगी।
                   


Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India , 8/122014
History of Haridwar to be continued in  हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास; बिजनौर इतिहास, सहारनपुर इतिहास  -भाग 25         
 

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Bhishma Kukreti

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             OCP ( Ochre Colored Pottery Culture ) in Haridwar, Sharanpur and Bijnor
                                  हरिद्वार , सहारनपुर और बिजनौर में गेरुआ भांड संस्कृति

                                       हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग -25   

                                                      History of Haridwar Part  --25 
                             
                           
                                                   इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती
भारत में गेरुआ भांड संस्कृति ( OCP या  Ochre Colored Pottery Culture ) का समय काल 2650 BC से 850 BC का काल माना जाता है (बालसुब्रमणियम और अन्य , 2002 ,Studies on Ancient OCP Period Copper , Indian Journal of History of Science 37.1, 1-15)। सर्वप्रथम उत्तर पश्चिम भारत में भारत में गेरुआ भांड संस्कृति ( OCP ( Ochre Colored Pottery Culture ) खोज का श्रेय डा लाल को जाता है जिन्होंने सन 1951 -1952 में हस्तिनापुर में इस संस्कृति की खोज की।
इस खोज के बाद गेरुआ भांड संस्कृति ( OCP ( Ochre Colored Pottery Culture ) के अवशेष पश्चिम उत्तर प्रदेश से ही सौ से अधिक अवशेष क्षेत्र मिले हैं। उत्तरी व दक्षिणी गंगा -यमुना दोआब में गेरुआ भांड संस्कृति OCP या  Ochre Colored Pottery Cultureके अवशेष खूब मात्रा में मिले हैं।
हरिद्वार के बहादराबाद में भी इस संस्कृति के अवशेष मिले हैं।
उत्तर पश्चिम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, बिजनौर , रामपुर , मोरादाबाद , मुजफरनगर , मेरठ , गाजियाबाद , जिलों के अतिरिक्त बरेली पीलीभीत , शाहजहाँपुर ,  बदायूं , बुलंदशहर , आगरा , अलीगढ़ ,मथुरा , मैनपुरी इटावा , एटा , में इस गेरुआ भांड संस्कृति OCP या  Ochre Colored Pottery Culture के अवशेष मिले हैं।
डा यशपाल (Transformation in Indian History page 73- ) ने  खोजों के विश्लेषण से बताया कि -
बिजनौर में  5 Ochre Colored Pottery Culture settlements
सहारनपुर में 90  Ochre Colored Pottery Culture settlementsपाये गए हैं।
सहारनपुर में इस संस्कृति के अवशॉन  इस प्रकार है -
यमुना खदर -२
मैदानी सहारनपुर -56
देवबंद मैदान     -10
    भाभर           -7
    तराई           -2
शिवालिक         - 0
40 स्थानो में केवल गेरुआ भांड संस्कृति ( OCP या  Ochre Colored Pottery Culture )के अकेले अवशेष मिले हैं।
34 स्थानो पर हड़प्पा संस्कृति गेरुई भांड संस्कृति बाद में आई है किन्तु यहां PGW संस्कृति नही आई।
इन कुछ स्थानो में हड़प्पा।  PG W के अवशेष भी मिलते हैं जो द्योत्तक हैं कि गेरुआ भांड संस्कृति ( OCP या  Ochre Colored Pottery Culture ) हड्डपा संस्कृति /सिंधु घाटी सभ्यता के पहले भी थी और साथ साथ में भी थी और PGW
केवल एक स्थान में गेरुआ भांड संस्कृति ( OCP या  Ochre Colored Pottery Culture ), हड़प्पा और PGW संस्कृति के अवशेस साथ साथ मिले हैं।
इसका मतलब है कि 44 % में एक ही संस्कृति थी , 54 % में दो संस्कृतियाँ साथ साथ थीं और 2 % में तीन संस्कृतियाँ ।
                      -
 राजपुर पूसा (बिजनौर ) व बहादराबाद (हरिद्वार ) की सूचना पहले अध्याओं में दिया जा चुका है।
 
गेरुआ भांड संस्कृति ( OCP या  Ochre Colored Pottery Culture ) के लोग साल भर में दो फसलें उगाया करते थे और मैदानी हिस्सों में इनकी जनसंख्या आज जैसी ही अधिक थी। गर्मियों -वर्ष में धान व ने जायज की फसल उगाते थे व जड़ों में जाऊ उगाया करते थे कुछ डालें भी उगते थे जैसे चने।


Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India 11 /122014
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History of Haridwar to be continued in  हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास; बिजनौर इतिहास, सहारनपुर इतिहास  -भाग 26         
 

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Bhishma Kukreti

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               OCP ( Ochre Colored Pottery Culture ) in Bahadarabad , Haridwar
                                     
                                       बहदराबाद , हरिद्वार में गेरुआ भांड संस्कृति के उपकरण

                                       हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग -27   

                                                      History of Haridwar Part  --27 
                             
                           
                                                   इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती

डा लाल को  हस्तिनापुर क्षेत्र में गेरुआ भांड संस्कृति ( OCP या  Ochre Colored Pottery Culture ) खोजने का श्रेय जाता है।
डा यूल ने बहादराबाद में निम्न गेरुआ भांड संस्कृति ( OCP या  Ochre Colored Pottery Culture ) उपकरणों का ब्यौरा इस प्रकार दिया है -

1- Axe -Type IV a, 170x4.1x0.85cms, 305 gms।

 . analyzed, circular indentations aligned  near the  butt end one  face, casting flaw

Axe, Type IV a,- 10.2x 4.1x 0.6 cm, 115 gm, 3 circular indentation aligned to the butt one face and hammer marks are visible.

Axe, type V b- 15.5x 12.2x 1.3 cm, 960 gm, analyzed, casting flaws on cutting edge

Miscellaneous Axe- 18.2x4 x 0.2-0.1 cm, 80 gm, corroded and bent.

Miscellaneous Axe-16.2 x 3.2 x 0.14 cm, 40 gm, sharp edges, three indentations on near the butt on one face.

Miscellaneous Axe- 12.0x 3.3x 0.24 cm, 40 gm, two circular indentations near the butt on one  face one corner is broken.

Miscellaneous Axe-13.5x3.3x 0.77 cm, 25 gm, bent

Bangle –Type I, D 8.8 x8.3 cm, wire D 1.0 cm, 135 gm, surface- smooth

Bangle –Type II, D 5.5 x6.5 cm, wire D 0.5- o.6cm, 20  gm, fine scratches run the length of wire

Bangle –Type II, D 6.4x 6.2 cm, wire D 1.2 cm, 90 gm, irregularly shaped

Bangle –Type III, D 6.1x 6.3 cm, wire D 0.5x0.6 cm, 20 gm, smoothly surface shaped

Bangle –Type III, D 6.0 x 6.7 cm, wire D 0.53 x0.56 cm, 20 gm,

Lance head- 47.9 x5.2 (pres.) x 1.42 cm, 1765 gm, irregularly made, concave edges, corroded raw surface



Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India 13 /122014
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