माठु-माठु
कवि: पूरण पन्त पथिक
भैजी क्यों छां,किले -कख तुम ,अटगणा छां माठु -माठु
अट्ग्गा-भट्गी मां रैल्या कख तुम रिबडी-रिबडी माठु -माठु.
ढुंगा छां क्या गंगल्वाड़ा -मवाळो मादेव छौ क्या तुम
तुमतैं अपणो कुछ पता बी ,बींगी जैल्या माठु-माठु .
बिन्सरी त होली ही ईं अँधेरी रात मां होण क्या?
भ्विंचळ जब आलो तब तुम बींगी लेल्या माठु -माठु.
हैंसदा रावा ,रिन्गदा रावा ,औडुळो अर ढाण्डु बि
दिखालो औकात तुमतैं ,टक लगैक माठु-माठु.
अहा दाज्यू ,सुपिना -गाणी-स्याणी,हर्ची गैन कख
पछ्याँन्दा नी तुम ,कबी-न कबी ,बींगी जैल्या माठु- माठु.
२-
हमत अपणो की छवीं लगाणा छाया ,खामखाँ ऐन बीचम फुन्द्या
बिसरी कै दूद अपणी ब्वे-इजा को ,राज छन कन लग्यां,बन्या फुन्द्या.
मुखडी की नी रईं छ पछ्याण ,लुंड अर तुंड बन्याँ यखा फुन्द्या .
फूल मुर्झैन ,धरती बी शरमाई ग्ये,हाल -बेहाल-कुहाल छन हुन्याँ
पित्रकूद्यों की कैरी कनी कुदशा ,पैरी माला ,हैंसन लग्यां फुन्द्या .
थकुली मां आग पैदा होण लाग्ये, ठट्टा समझन लग्यां इ फुन्द्या
वग्त जब पूछलो छक्क्वैकी सवाल ,कूण कै कुम्च्यारा लुकला फुन्द्या .
@पूरण पन्त पथिक देहरादून ३० सितम्बर 2012